
कवि को लिखने के लिए कोरी स्लेट कभी नहीं मिलती है। जो स्लेट उसे मिलती है, उस पर पहले से बहुत कुछ लिखा होता है। वह सिर्फ़ बीच की ख़ाली जगह को भरता है। इस भरने की प्रक्रिया में ही रचना की संभावना छिपी हुई है।

प्रत्येक सर्जक या विधाता, जीवन के चाहे जिस क्षेत्र की बात हो—‘विद्रोही’ और ‘स्वीकारवादी’ दोनों साथ ही साथ होता है।

एक सुभाषित है—'कवितारसमाधुर्य्यम् कविर्वेत्ति’, कविता का रस-माधुर्य सिर्फ़ कवि जानता है। ठीक उसी प्रकार सुर में सुर मिलना चाहिए, नहीं तो वाद्ययंत्र कहेगा ‘गा’ और गले से निकलेगा ‘धा’।

सर्जक या रचनाकार के लिए ‘नॉनकन्फर्मिस्ट’ होना ज़रूरी है। इसके बिना उसकी सिसृक्षा प्राणवती नहीं हो पाती और नई लीक नहीं खोज पाती।

कविता आदमी को मार देती है। और जिसमें आदमी बच गया है, वह अच्छा कवि नहीं है।

कवित्व-शक्ति से विहिन व्यक्ति का शास्त्रज्ञान धनहीन के दान के समान, नपुंसक के अस्त्रकौशल के समान तथा ज्ञानहीन की प्रगल्भता के समान निष्फल होता है।

दिवंगत होने पर भी सत्काव्यों के रचयिताओं का रम्य काव्य-शरीर; निर्विकार ही रहता है और जब तक उस कवि की अमिट कीर्ति पृथ्वी और आकाश में व्याप्त है, तब तक वह पुणयात्मा देव-पद को अलंकृत करता है।

कवि मात्र जन्म से ही कवि नहीं होता, उसे अभ्यास भी करना पड़ता है; किन्तु अभ्यास उन्हीं को फलता है, जो जन्म से भी कवि हैं।

जनता मुझसे पूछ रही है, क्या बतलाऊँ?
जनकवि हूँ मैं, साफ़ कहूँगा, क्यों हकलाऊँ।

जिन लोगों के मन में केशव के काव्य के बारे में रूखेपन और पाण्डित्य का भ्रम है, उन्हें कदाचित् यह पता नहीं है कि केशव हिंदी के उत्तर-मध्य युग के कवियों में सबसे अधिक व्यवहारविद्, लोक-कुशल और मनुष्य के स्वभाव के मर्मज्ञ कवि हैं।
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जो कवि केवल सौंदर्य का प्रेमी है, वह शुद्ध कलाकार बन जाता है।

टीकाकारों ने कवि का अर्थ मेधावी और प्रतिभाशाली किया है।

कवि अदृश्य का पुजारी होता है।

मैं स्वयं को असफल मनुष्य, असफल कवि, असफल पशु, असफल देवता और असफल ब्रह्मराक्षस मानता हूँ। सफल होना मेरे लिए संभव नहीं है। मेरे लिए केवल संभव है—होना।

हे नारी! तुम्हारे स्पर्श से ही पृथ्वी को रूप मिला है और सुधा रस का स्पर्श मिला है! जीवन कुसुम को परिवेष्टित कर कवियों ने विश्व गुंजा दिया जिससे काव्य का सुरस विकसित हो उठा।

कवि दुनिया को वैसे ही देखता है, जैसे आदमी किसी औरत को देखता है।

कवि के लिए, मौन स्वीकार्य ही नहीं, बल्कि ख़ुश करने वाली प्रतिक्रिया है।

कवि का रास्ता धूमकेतु की तरह है।

कवि इस संसार के अघोषित विधिनिर्माता होते हैं।

सुरूप-कुरूप दोनों को मिलाकर सुंदर की अखंड मूर्ति की कल्पना करना कठिन ज़रूर है किंतु मनुष्य के लिए एकदम असंभव है, यह नहीं कहा जा सकता है। भक्त, कवि और आर्टिस्ट—इनके लिए सुंदर-असुंदर जैसी कोई चीज़ है ही नहीं, सभी चीज़ों और भावों में जो वस्तु नित्य है, उसी को वे सुंदर रूप में मानते हैं।

कवि कीड़ों से रेशम के कपड़े बनाता है।

वह व्यक्ति जो कविता की भावनाओं से महान प्रसन्नता प्राप्त करता है, सच्चा कवि है—चाहे उसने पूरे जीवन में कभी एक पंक्ति भी न लिखी हो।

कविता तो एक जीवन को तोड़कर सकल जीवन बनाती है। और जीवन टूटता है, वह कवि का है।

गुरु के उपदेश से तो मंदबुद्धि व्यक्ति भी शास्त्रों का अध्ययन कर सकते हैं, लेकिन काव्य तो किसी प्रतिभाशाली को कभी-कभी ही (सदा-सर्वदा नहीं) स्फुरित होता है।

सही कवि भविष्य में देख सकते हैं।

सुकवि की मुश्किल को कौन समझे, सुकवि की मुश्किल। सुकवि की मुश्किल। किसी ने उनसे नहीं कहा था कि आइए आप काव्य रचिए।

माधुर्य और प्रसाद गुण चाहने वाले सुधी कवि, अधिक समस्त (समासयुक्त) पदों का प्रयोग नहीं करते। कुछ कवि जिन्हें ओज की अभिव्यक्ति ही वांछित है, अत्यधिक समस्त पदों का प्रयोग करते हैं। उदाहरणार्थ ‘मंदारकुसुमरेणुपिञ्जरितालका’ अर्थात मंदार वृक्ष के पराग से पीली अलकों वाली नायिका।


देखो वृक्ष को देखो वह कुछ कर रहा है।
किताबी होगा कवि जो कहेगा कि हाय पत्ता झर रहा है।

फ़िलासफ़ी बघारना प्रत्येक कवि और कथाकार के लिए अपने-आपमें एक ‘वैल्यू’ है, क्योंकि मैं कथाकार हूँ, क्योंकि ‘सत्य’, ‘अस्तित्व’ आदि की तरह ‘गुटबंदी’ जैसे एक महत्त्वपूर्ण शब्द का ज़िक्र आ चुका है, इसीलिए सोलह पृष्ठ के लिए तो नहीं, पर एक-दो पृष्ठ के लिए अपनी कहानी रोककर मैं भी पाठकों से कहना चाहूँगा कि सुनो-सुनो हे भाइयो, वास्तव में तो मैं एक फ़िलासफ़र हूँ, पर बचपन के कुसंग के कारण...।

कवि को यदि रचना की प्रक्रिया से अलौकिक आनन्द की प्राप्ति नहीं हो, तो उसकी कविता से पाठकों को भी आनन्द नहीं मिलेगा। कला की सारी कृतियाँ पहले अपने-आपके लिए रची जाती हैं।

अत्यधिक दुःखी लोग गलती से काव्य-क्षेत्र में आ जाते हैं। जो वे गीतों में सिखाते हैं, उसे वे दुःखों में सीखते हैं।

मंदिर की परिक्रमा करते हुए भक्त जैसे देवता को ही सब ओर से देखता है, मंदिर की दीवारों को नहीं, वैसे ही सच्चा कवि जीवन को ही केंद्र में देखता है।


अपनी व्यक्तिगत सत्ता की अलग भावना से हटाकर निज के योगक्षेम के संबंध से मुक्त करके, जगत की वास्तविक दशाओं में जो हृदय समय-समय पर रमता है, वही सच्चा कवि हृदय है।

कवि की दृष्टि तो सौंदर्य की ओर जाती है, चाहे वह जहाँ हो वस्तुओं के रूप-रंग में अथवा मनुष्यों के मन, वचन और कर्म में।

कवि को अपने कार्य में अंतःकरण की तीन वृत्तियों से काम लेना पड़ता है—कल्पना, वासना और बुद्धि। इनमें से बुद्धि का स्थान बहुत गौण है। कल्पना और वासनात्मक अनुभूति ही प्रधान है।

वर्षा से दो विशेष प्रसन्न होते हैं—कवि और चोर।

जितना कवि समय को, उतना ही समय कवि को गढ़ता है।

वह शब्द नहीं, वह अर्थ नहीं, वह न्याय नहीं, वह कला नहीं, जो काव्य का अंग न बनती हो। कवि का दायित्व कितना बड़ा है!

सुकवि के वचन अर्थादि का विचार किए बिना ही आनंदमग्न कर देते हैं, पुण्यमयी नदियाँ स्नान के बिना ही दर्शनमात्र से ही पवित्र कर देती हैं।

केशव को कवि हृदय नहीं मिला था। उनमें वह सहृदयता और भावुकता न थी जो एक कवि में होनी चाहिए। वे संस्कृत साहित्य से सामग्री लेकर अपने पांडित्य और रचना-कौशल की धाक जमाना चाहते थे। पर इस कार्य में सफलता प्राप्त करने के लिए भाषा पर जैसा अधिकार चाहिए, वैसा उन्हें प्राप्त न था।

उर्दू कवियों की सबसे बड़ी विशेषता उनका मातृभूमि-प्रेम है। इसलिए बंबई और कलकत्ता में भी वे अपने गाँव या क़स्बे का नाम अपने नाम के पीछे बाँधे रहते हैं और उसे खटखटा नहीं समझते। अपने को गोंडवी, सलोनवी और अमरोहवी कहकर वे कलकत्ता-बंबई के कूप-मंडूक लोगों को इशारे से समझाते हैं कि सारी दुनिया तुम्हारे शहर ही में सीमित नहीं है। जहाँ बंबई है, वहाँ गोंडा भी है।

भय और काम मनुष्य को दीन और आतुर बनाते हैं, ‘कवि’ और ‘प्रॉफ़ेट’ नहीं।

सभी जानते हैं कि हमारे कवि और कहानीकार वास्तव में दार्शनिक हैं और कविता या कथा-साहित्य तो वे सिर्फ़ यूँ ही लिखते हैं।

कवि हमारे सामने असौंदर्य, अमंगल, अत्याचार, क्लेश इत्यादि भी रखता है, रोष, हाहाकार, और ध्वंस का दृश्य भी लाता है। पर सारे भाव, सारे रूप और सारे व्यापार भीतर-भीतर आनंद-कला के विकास में ही योग देते पाए जाते हैं।

कवियों का स्थान निर्धारण या मूल्यांकन मैंने कभी नहीं किया। कभी कर पाऊँगा भी नहीं, क्योंकि ‘सफल’, ‘समर्थ’ अथवा ‘महान’ होने को मैं कोई महत्व नहीं देता। मैं महत्व देता हूँ ‘प्रिय’ होने को। और ज़रूरी नहीं है कि जो कवि मुझे प्रिय हो, वही कवि आपको भी प्रिय हो। मुझे तो निश्चय ही राजकमल चौधरी सबसे अधिक प्रिय कवि हैं। निराला के बाद इतना प्रिय कवि राजकमल चौधरी के लिए दूसरा हिंदी में नहीं हुआ, अब होगा भी नहीं।

श्रीमानों के शुभागमन पर पद्य बनाना, बात-बात में उनको बधाई देना, कवि का काम नहीं। जिनके रूप या कर्म-कलाप जगत और जीवन के बीच में उसे सुंदर लगते हैं, उन्हीं के वर्णन में वह स्वांतः सुखाय प्रवृत्त होता है।

मनुष्यता के सौंदर्यपूर्ण और माधुर्यपूर्ण पक्ष को दिखा कर इन कृष्णोपासक वैष्णव कवियों ने जीवन के प्रति अनुराग जगाया, या कम से कम जीने की चाह बनी रहने दी।

कवि का वेदांत-ज्ञान, जब अनुभूतियों से रूप, कल्पना से रंग और भावजगत से सौंदर्य पाकर साकार होता है, तब उसके सत्य में जीवन का स्पंदन रहेगा, बुद्धि की तर्क-श्रृंखला नहीं। ऐसी स्थिति में उसका पूर्ण परिचय न अद्वैत दे सकेगा और न विशिष्टाद्वैत।
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