
प्रत्येक सर्जक या विधाता, जीवन के चाहे जिस क्षेत्र की बात हो—‘विद्रोही’ और ‘स्वीकारवादी’ दोनों साथ ही साथ होता है।

सर्जक या रचनाकार के लिए ‘नॉनकन्फर्मिस्ट’ होना ज़रूरी है। इसके बिना उसकी सिसृक्षा प्राणवती नहीं हो पाती और नई लीक नहीं खोज पाती।

हे नारी! तुम्हारे स्पर्श से ही पृथ्वी को रूप मिला है और सुधा रस का स्पर्श मिला है! जीवन कुसुम को परिवेष्टित कर कवियों ने विश्व गुंजा दिया जिससे काव्य का सुरस विकसित हो उठा।

कवि दुनिया को वैसे ही देखता है, जैसे आदमी किसी औरत को देखता है।

कवि के लिए, मौन स्वीकार्य ही नहीं, बल्कि ख़ुश करने वाली प्रतिक्रिया है।

मैं स्वयं को असफल मनुष्य, असफल कवि, असफल पशु, असफल देवता और असफल ब्रह्मराक्षस मानता हूँ। सफल होना मेरे लिए संभव नहीं है। मेरे लिए केवल संभव है—होना।

कवि अदृश्य का पुजारी होता है।

कवि कीड़ों से रेशम के कपड़े बनाता है।

कवि का रास्ता धूमकेतु की तरह है।

कवि इस संसार के अघोषित विधिनिर्माता होते हैं।

वह व्यक्ति जो कविता की भावनाओं से महान प्रसन्नता प्राप्त करता है, सच्चा कवि है—चाहे उसने पूरे जीवन में कभी एक पंक्ति भी न लिखी हो।

सही कवि भविष्य में देख सकते हैं।

सुकवि की मुश्किल को कौन समझे, सुकवि की मुश्किल। सुकवि की मुश्किल। किसी ने उनसे नहीं कहा था कि आइए आप काव्य रचिए।

श्रीमानों के शुभागमन पर पद्य बनाना, बात-बात में उनको बधाई देना, कवि का काम नहीं। जिनके रूप या कर्म-कलाप जगत और जीवन के बीच में उसे सुंदर लगते हैं, उन्हीं के वर्णन में वह स्वांतः सुखाय प्रवृत्त होता है।

कवियों का स्थान निर्धारण या मूल्यांकन मैंने कभी नहीं किया। कभी कर पाऊँगा भी नहीं, क्योंकि ‘सफल’, ‘समर्थ’ अथवा ‘महान’ होने को मैं कोई महत्व नहीं देता। मैं महत्व देता हूँ ‘प्रिय’ होने को। और ज़रूरी नहीं है कि जो कवि मुझे प्रिय हो, वही कवि आपको भी प्रिय हो। मुझे तो निश्चय ही राजकमल चौधरी सबसे अधिक प्रिय कवि हैं। निराला के बाद इतना प्रिय कवि राजकमल चौधरी के लिए दूसरा हिंदी में नहीं हुआ, अब होगा भी नहीं।

मनुष्यता के सौंदर्यपूर्ण और माधुर्यपूर्ण पक्ष को दिखा कर इन कृष्णोपासक वैष्णव कवियों ने जीवन के प्रति अनुराग जगाया, या कम से कम जीने की चाह बनी रहने दी।

कवि का वेदांत-ज्ञान, जब अनुभूतियों से रूप, कल्पना से रंग और भावजगत से सौंदर्य पाकर साकार होता है, तब उसके सत्य में जीवन का स्पंदन रहेगा, बुद्धि की तर्क-श्रृंखला नहीं। ऐसी स्थिति में उसका पूर्ण परिचय न अद्वैत दे सकेगा और न विशिष्टाद्वैत।

कवि तो समय की परिधि में नहीं बँधता, उसकी रचना अनंत काल के लिए होती है और इसीलिए उसके काव्य से ऐसे अर्थ भी सिद्ध होते हैं जो उसकी अपनी कल्पना में नहीं होते। यही उसके काव्य की पूर्णता और विशेषता है।

सुकवि के वचन अर्थादि का विचार किए बिना ही आनंदमग्न कर देते हैं, पुण्यमयी नदियाँ स्नान के बिना ही दर्शनमात्र से ही पवित्र कर देती हैं।

भय और काम मनुष्य को दीन और आतुर बनाते हैं, ‘कवि’ और ‘प्रॉफ़ेट’ नहीं।

कवि हमारे सामने असौंदर्य, अमंगल, अत्याचार, क्लेश इत्यादि भी रखता है, रोष, हाहाकार, और ध्वंस का दृश्य भी लाता है। पर सारे भाव, सारे रूप और सारे व्यापार भीतर-भीतर आनंद-कला के विकास में ही योग देते पाए जाते हैं।

केशव को कवि हृदय नहीं मिला था। उनमें वह सहृदयता और भावुकता न थी जो एक कवि में होनी चाहिए। वे संस्कृत साहित्य से सामग्री लेकर अपने पांडित्य और रचना-कौशल की धाक जमाना चाहते थे। पर इस कार्य में सफलता प्राप्त करने के लिए भाषा पर जैसा अधिकार चाहिए, वैसा उन्हें प्राप्त न था।

अत्यधिक दुःखी लोग गलती से काव्य-क्षेत्र में आ जाते हैं। जो वे गीतों में सिखाते हैं, उसे वे दुःखों में सीखते हैं।

मंदिर की परिक्रमा करते हुए भक्त जैसे देवता को ही सब ओर से देखता है, मंदिर की दीवारों को नहीं, वैसे ही सच्चा कवि जीवन को ही केंद्र में देखता है।


वह शब्द नहीं, वह अर्थ नहीं, वह न्याय नहीं, वह कला नहीं, जो काव्य का अंग न बनती हो। कवि का दायित्व कितना बड़ा है!

अपनी व्यक्तिगत सत्ता की अलग भावना से हटाकर निज के योगक्षेम के संबंध से मुक्त करके, जगत की वास्तविक दशाओं में जो हृदय समय-समय पर रमता है, वही सच्चा कवि हृदय है।

कवि की दृष्टि तो सौंदर्य की ओर जाती है, चाहे वह जहाँ हो वस्तुओं के रूप-रंग में अथवा मनुष्यों के मन, वचन और कर्म में।

कवि को अपने कार्य में अंतःकरण की तीन वृत्तियों से काम लेना पड़ता है—कल्पना, वासना और बुद्धि। इनमें से बुद्धि का स्थान बहुत गौण है। कल्पना और वासनात्मक अनुभूति ही प्रधान है।

वही सच्चा कवि है जो दिव्य सौंदर्य के अनुभव में लीन हो जाए।

कवि लिखने के लिए तब तक लेखनी का प्रयोग नहीं करता जब तक उसकी स्याही प्रेम की आहों से कोमल न बना दी गई हो।

कवि को लिखने के लिए कोरी स्लेट कभी नहीं मिलती है। जो स्लेट उसे मिलती है, उस पर पहले से बहुत कुछ लिखा होता है। वह सिर्फ़ बीच की ख़ाली जगह को भरता है। इस भरने की प्रक्रिया में ही रचना की संभावना छिपी हुई है।

कवि जिस ग्रंथ की रचना करता है उसके सब अर्थों की कल्पना नहीं कर लेता है। काव्य की यही ख़ूबी है कि वह कवि से भी बढ़ जाता है।


कवि केवल सृष्टि ही नहीं करता सृष्टि की रक्षा भी करता है। जो स्वभाव से ही सुंदर है उसे और भी सुंदर करके प्रकट करना जैसे उसका एक काम है, वैसे ही जो सुंदर नहीं है, उसे असुंदर के हाथ से बचा लेना भी उसका दूसरा काम है।

ज्यों-ज्यों हमारी वृत्तियों पर सभ्यता के नए-नए आवरण चढ़ते जाएँगे त्यों-त्यों एक ओर तो कविता की आवश्यकता बढ़ती जाएगी, दूसरी ओर कवि-कर्म कठिन होता जाएगा।

ईश्वर पूर्ण कवि है जो स्वयं अपनी रचनाओं का अभिनय करता है।

कविता करने ही से कवि पदवी नहीं मिलती। कवि के हृदय को कवि के काव्य-कर्म को जो जान सकते हैं वे भी एक प्रकार के कवि हैं।

किसी भावोद्रेक द्वारा परिचालित अंतर्वृत्ति जब उस भाव के पोषक स्वरूप गढ़कर या काट-छाँटकर सामने रखने लगती है तब हम उसे सच्ची कवि-कल्पना कह सकते हैं।

तार्किक जिस प्रकार श्रोता को अपनी विचार-पद्धति पर लाना चाहता है उसी प्रकार कवि अपनी भाव-पद्धति पर।

कवि का भोजन है प्रेम और यश।

उस भाषा के साहित्य का दुर्भाग्य तय है, जहाँ आलोचक महान् हों, कवि नहीं।

एक लेखक की शुरुआत हमेशा बहुत जटिल होती है - वह कई खेल एक साथ खेल रहा होता है।

कवि व्यक्ति नहीं, विधाता है और उसका धर्म जीवधर्म का साक्षात्कार तथा सृष्टि-दर्शन है। और यही धर्म भारतीय साहित्य, संगीत, चित्र और मूर्ति-निर्माण में सब कहीं बिना किसी प्रकार के श्रम के देखा जा सकता है। कवि ने अपने कवि-कर्म का नाम 'रामायण' रखा पर 'राम' नहीं। व्यक्ति के नाम पर साहित्यित कृतियों का नामकरण नहीं हुआ।

कोई बुरा आदमी अच्छा कवि नहीं हो सकता।

कवि का लक्ष्य 'बिंब ग्रहण' कराने का रहता है, केवल 'अर्थ-ग्रहण' कराने का नहीं।

जिस कवि में कल्पना की समाहार-शक्ति के साथ भाषा की समास-शक्ति जितनी ही अधिक होगी उतना ही वह मुक्तक की रचना में सफल होगा।

कवि के घर निर्धनता से अकाल नहीं पड़ता। वह तो पड़ता है, नीरसता का मौसम आ जाने पर।

अलग-अलग बिखरे हुए शब्द तभी तक निर्दोष रह पाते हैं जब तक कवि उन्हें अपनी जिह्वा रूपी सुई से गूँथ नहीं देता (अर्थात् काव्य का सर्वथा निर्दोष होना असंभव है)।

यदि किसी उक्ति में रसात्मकता और चमत्कार दोनों हों तो प्रधानता का विचार करके सूक्ति या काव्य का निर्णय हो सकता है। जहाँ उक्ति में अनूठापन अधिक मात्रा में होने पर भी उसकी तह में रहने वाला भाव आच्छन्न नहीं हो जाता, वहाँ भी काव्य माना जाएगा।
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