
सारी कलाएँ एक-दूसरे में समोई हुई हैं, हर कला-कृति दूसरी कलाकृति के अंदर से झाँकती है।

एक सुभाषित है—'कवितारसमाधुर्य्यम् कविर्वेत्ति’, कविता का रस-माधुर्य सिर्फ़ कवि जानता है। ठीक उसी प्रकार सुर में सुर मिलना चाहिए, नहीं तो वाद्ययंत्र कहेगा ‘गा’ और गले से निकलेगा ‘धा’।

जो कला होती है वह सुंदर और सत्य होती है, जो बनावट होती है वह असुंदर और असत्य होती है।

अतीत के बिना कोई कला नहीं होती है, किंतु वर्तमान के बिना भी कोई कला जीवित नहीं रहती है, यह भी ठीक है।

कला मानवीय जीवन की अनिवार्य आवश्यकता है।

जो कला जीवन की आवश्यकताओं से उत्प्रेरित नहीं होती, उसमें विषयगत वैविध्य का अभाव रहता है और उसके रूप-तत्व का कौशल ही अधिक बढ़ जाता है।

क्रिया के भेद से ही संसार में कला के अनेक भेद उद्भुत हुए।

कला की प्राप्ति में तपस्या अपेक्षित है— प्रक्रिया अर्जित करने का तप, मनन करने का ताप, देखने का तप, श्रवण करने का तप।

कला का कार्य यथास्थिति बताने से ज़्यादा यह कल्पना करना है कि क्या संभव है।

जो कवि केवल सौंदर्य का प्रेमी है, वह शुद्ध कलाकार बन जाता है।

कला की कोई भी क्रिया, मनुष्य और जीवन-धारण के लिए अनिवार्य नहीं है। इसलिए कला ही मनुष्य को वह क्षेत्र प्रदान करती है, जिसमें वह अपने व्यक्तित्व का सच्चा विकास कर सकता है।

सफल होने के लिए—एक कलाकार के पास—साहसी आत्मा होनी चाहिए। …वह आत्मा जो हिम्मत करती है और चुनौती देती है।

कला से प्रेम करो। सभी झूठों में से, यह सबसे कम असत्य है।

कविता विद्वान की कला है।

हर रचना अपने निजी विन्यास को लेकर व्यक्त होती है, जैसे हर राग-रागिनी का ठाट बदल जाता है, वैसे ही हर चित्र, कविता के सृजन के समय उसका साँचा बदल जाता है।

जहाँ तक मुझे याद आता है कि मैं हमेशा गहरे अवसाद से पीड़ित रहा जो मेरी कलाकृतियों में भी झलकता है।

कला लंबी है और जीवन छोटा—मृत्यु मँडरा रही है।

लेखन की कला आप जो मानते हैं, उसे खोजने की कला है।

कला उनके लिए सांत्वना है, जिन्हें जीवन ने तोड़ दिया है।

कला सिर्फ़ और सिर्फ़ अभाव, चाहत और अकेलेपन से नहीं रची जाती है; रचना के लिए घनिष्ठता, जुनून और प्रेम भी ज़रूरी है।

कलाकारों के लिए यह आवश्यक नहीं कि वे नैतिक रूप से बहुप्रसंशित हो। सिर्फ़ यही महत्त्वपूर्ण है कि वे महान कला का सृजन करें।

आप अच्छे इरादों से कला की रचना नहीं कर सकते हैं।

प्रेम की कला के अभ्यास के लिए ‘आस्था का अभ्यास’ ज़रूरी है।

‘कला के लिए कला’ खोखला वाक्यांश है। सत्य के लिए कला, शुभ और सुंदर के लिए कला—मुझे इसी विश्वास की तलाश है।

कभी कलात्मक गहने मत पहनो, ये स्त्री की प्रतिष्ठा को बर्बाद कर देते हैं।

अश्वेत साहित्य को समाजशास्त्र के रूप में पढ़ाया जाता है—सहिष्णुता के रूप में, गंभीर, कठोर कला के रूप में नहीं।



पति को पा लेना एक कला है, उसे पकड़कर रखना कठिन कार्य है।

'आदानेक्षिप्रकारिता प्रतिदाने चिरायुता' अर्थात् ग्रहण करने में शीघ्रता करनी चाहिए किंतु जब दूसरों को देने का अवसर आए तब उसमें देर लगानी चाहिए। शिल्पी पर शास्त्रकार ने यह जो आदेश लागू किया है, उसका एक अर्थ है कि वस्तु के कौशल और रस को चटपट ग्रहण करना चाहिए। किंतु प्रस्तुत करते समय सोच-समझकर चलना चाहिए।

कला हमारे विश्वासघाती आदर्शों का दर्पण है।

कला में कुछ भी कहना कठिन है : कुछ कहना कुछ न कहने जैसा ही है।

जब सच्चाई पर नवीनता का रंग चढ़ता है, उस समय मानो सोने की अंगूठी में कोई हीरा जड़ देता है। कला वही है जो नमूने में नई गठन गढ़ दे, परंतु वाणी में भी प्राचीनता का पाठ पढ़ाए।

एक व्यक्ति तो प्रलाप की तरह अंट-संट बकता चला जा रहा है और एक व्यक्ति कुछ भी नहीं कह रहा है या सीधी बातें कह रहा है—शिल्पजगत् में इन दोनों के ही लिए कोई स्थान नहीं।

चिकित्सा की कला में रोगी को ख़ुश करना शामिल है, जबकि बीमारी को प्रकृति ठीक करती है।

कला के मामलों में धीमे से बढ़ो : प्रत्येक क्षण को वह देने दो जो उसे देना है। वक़्त के आगे भागने की कोशिश न करो।

वास्तविक कला में हमें उत्तेजित करने की क्षमता होती है।

एक सामान्य मनुष्य के मन पर सुंदर-असुंदर की जैसी प्रतिक्रिया होती है, वैसी ही प्रतिक्रिया एक कलाकार के मन पर भी होती है।

सीखना, अनदेखा करने की कला है।

मानवीय-कला का शैशव मनुष्य के घर और बाहर के ज़रूरी काम करते हुए बीता है।

मधुकर मधु लेकर तृप्त हो जाए; इससे फूल को जितना आनंद मिलता है, इसकी अपेक्षा एक शिल्पी की सजीव आत्मा, एक समझदार पारखी इससे भी आनंदित होती है, यह सत्य है, किंतु यह उसका ऊपरी पाना होता है। मिल जाए तो भी अच्छा है, न मिले भी अच्छा।

जैसे कला, साहित्य, प्रशासन, शिक्षा आदि के क्षेत्रों में, वैसे ही डकैती के क्षेत्र में भी मध्यकालीन पद्धतियों को आधुनिक युग में लागू करने से व्यावहारिक कठिनाइयाँ पैदा हो सकती हैं।
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कला और विज्ञान ही में मनुष्य अपनी पूर्ण अभिव्यक्ति पाता है।
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किसी शिल्पकार्य, संगीत और किसी अन्य विषय में प्रवीणता तब तक नहीं होती और न हो सकती है, जबतक इंद्रियों की अनेक नित्य एवं सहज क्रियाओं में कुछ बदलाव न किया जाए।

कला और रचना के लिए अन्यथा-वृत्ति (अन्यथाकरण) ही बहुत बड़ी बात है।

यह स्थिति वांछनीय नहीं है कि कला और जनता का मिलन हमेशा साधारणता के ही स्तर पर हो।

कला प्रकृति की पुत्री है।

हमारी आँकों के समक्ष प्रकृति की जो लीला चल रही है, उसमें एक कारीगर और एक रूपांकन में दक्ष व्यक्ति इन दोनों के हाथ एक साथ काम करते हैं।

जीवन के सिद्धांतों को व्यवहार में लाने की जो कला या युक्ति है, उसी को 'योग' कहते हैं। सांख्य का अर्थ है— 'सिद्धांत' अथवा 'शास्त्र' और 'योग' का अर्थ है 'कला'।

कवि को यदि रचना की प्रक्रिया से अलौकिक आनन्द की प्राप्ति नहीं हो, तो उसकी कविता से पाठकों को भी आनन्द नहीं मिलेगा। कला की सारी कृतियाँ पहले अपने-आपके लिए रची जाती हैं।
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