
दिन-रात गर्द के बवंडर उड़ाती हुई जीपों की मार्फ़त इतना तो तय हो चुका है कि हिंदुस्तान, जो अब शहरों ही में बसा था, गाँवों में भी फैलने लगा है।

हमारे न्याय-शास्त्र की किताबों में लिखा है कि जहाँ-जहाँ धुआँ होता है, वहाँ-वहाँ आग होती है। वहीं यह भी बढ़ा देना चाहिए कि जहाँ बस का अड्डा होता है, वहाँ गंदगी होती है।

किसान को—जैसा कि ‘गोदान’ पढ़नेवाले और दो बीघा ज़मीन' जैसी फ़िल्में देखनेवाले पहले से ही जानते हैं—ज़मीन ज़्यादा प्यारी होती है। यही नहीं, उसे अपनी ज़मीन के मुक़ाबले दूसरे की ज़मीन बहुत प्यारी होती है और वह मौक़ा मिलते ही अपने पड़ोसी के खेत के प्रति लालायित हो उठता है। निश्चय ही इसके पीछे साम्राज्यवादी विस्तार की नहीं, सहज प्रेम की भावना है जिसके सहारे वह बैठता अपने खेत की मेड़ पर है, पर जानवर अपने पड़ोसी के खेत में चराता है।

योग्य आदमियों की कमी है। इसलिए योग्य आदमी को किसी चीज़ की कमी नहीं रहती। वह एक ओर छूटता है तो दूसरी ओर से पकड़ा जाता है।
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तर्क और आस्था की लड़ाई हो रही थी और कहने की ज़रूरत नहीं कि आस्था तर्क को दबाए दे रही थी।

विरोधी से भी सम्मानपूर्ण व्यवहार करना चाहिए। देखो न, प्रत्येक बड़े नेता का एक-एक विरोधी है। सभी ने स्वेच्छा से अपना-अपना विरोधी पकड़ रखा है। यह जनतंत्र का सिद्धांत है।

तुम मँझौली हैसियत के मनुष्य हो और मनुष्यता के कीचड़ में फँस गये हो। तुम्हारे चारो ओर कीचड़-ही-कीचड़ है।

कीचड़ की चापलूसी मत करो। इस मुग़ालते में न रहो कि कीचड़ से कमल पैदा होता है। कीचड़ में कीचड़ ही पनपता है। यह जगह छोड़ो। यहाँ से पलायन करो।

लीडरी ऐसा बीज है जो अपने घर से दूर की ज़मीन में ही पनपता है।

भागो-भागो यथार्थ तुम्हारा पीछा कर रहा है।

ज़ोर से बोलने का वही नतीजा हुआ जो प्रायः होता है। विपक्ष धीरे-धीरे बोलने लगा।

आदमी फ़िल्मी अभिनेता हो या नेता, तभी वह इच्छा-मात्र से रो सकता है।
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जब कभी क्लर्क वैद्यजी को 'चाचा' कहता था, प्रिंसिपल साहब को अफ़सोस होता था कि वे उन्हें अपना बाप नहीं कह पाते।

'कुकरहाव' गँजही बोली का शब्द है। कुत्ते आपस में लड़ते हैं और एक-दूसरे को बढ़ावा देने के लिए शोर मचाते हैं। उसी को कुकरहाव कहते हैं।

हमारे यहाँ आज भी शास्त्र सर्वोपरि है और जाति-प्रथा मिटाने की सारी कोशिशें अगर फ़रेब नहीं हैं तो रोमांटिक कार्रवाइयाँ हैं।

हमारे इतिहास में—चाहे युद्धकाल रहा हो, या शांतिकाल—राजमहलों से लेकर खलिहानों तक गुटबंदी द्वारा ‘मैं’ को 'तू' और ‘तू' को 'मैं' बनाने की शानदार परंपरा रही है।

हमारी योजनाओं में जैसे काग़ज़, वैसे ही हमारी गंदगी का महत्त्वपूर्ण तत्त्व थूक है।

जैसे कला, साहित्य, प्रशासन, शिक्षा आदि के क्षेत्रों में, वैसे ही डकैती के क्षेत्र में भी मध्यकालीन पद्धतियों को आधुनिक युग में लागू करने से व्यावहारिक कठिनाइयाँ पैदा हो सकती हैं।

आज के भावुकतापूर्ण कथाकारों ने न जाने किससे सीखकर बार-बार कहा है कि दुःख मनुष्य को माँजता है! बात कुल इतनी नहीं है, सच तो यह है कि दुःख मनुष्य को पहले फींचता है, फिर फींचकर निचोड़ता है, फिर निचोड़कर उसके चेहरे को घुग्घू-जैसा बनाकर, उस पर दो-चार काली-सफ़ेद लकीरें खींच देता है। फिर उसे सड़क पर लंबे-लंबे डगों से टहलने ले लिए छोड़ देता है।
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यह सही है कि ‘सत्य’ ‘अस्तित्व’ आदि शब्दों के आते ही हमारा कथाकार चिल्ला उठता है, 'सुनो भाइयो! यह क़िस्सा-कहानी रोककर मैं थोड़ी देर के लिए तुमको फ़िलासफ़ी पढ़ाता हूँ, ताकि तुम्हें यक़ीन हो जाए कि वास्तव में मैं फ़िलासफ़र था पर बचपन के कुसंग कारण यह उपन्यास (या कविता) लिख रहा हूँ। इसलिए हे भाइयो! लो, यह सोलहपेजी फ़िलासफ़ी का लटका; और अगर मेरी किताब पढ़ते-पढ़ते तुम्हें भ्रम हो गया हो कि मुझे औरों-जैसी फ़िलासफ़ी नहीं आती, तो उस भ्रम को इस भ्रम से काट दो।'

किसी भी सामान्य शहराती की तरह उसकी भी आस्था थी कि शहर की दवा और देहात की हवा बराबर होती है।

अपने देश का क़ानून पक्का है—जैसा आदमी, वैसी अदालत।

लड़ना किसानों, मज़दूरों, व्यापारियों, भूतपूर्व ज़मीदारों आदि की ही बपौती नहीं—प्राणिमात्र का सहज गुण है। लड़ने की योग्यता इस पेशे या उस पेशे पर निर्भर नहीं है।

वहाँ एक नीम का लंबा-चौड़ा पेड़ था जो बहुत-से बुद्धिजीवियों की तरह दूर-दूर तक अपने हाथ-पाँव फैलाए रहने पर भी तने में खोखला था।
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जिसके छिलता है, उसी के चुनमुनाता है। लोग अपना ही दुःख-दर्द ढो लें, यही बहुत है। दूसरे का बोझा कौन उठा सकता? अब तो वही है भैया, कि तुम अपना दाद उधर से खुजलाओ, हम अपना इधर से खुजलाएँ।

यह एक भौतिक सिद्धांत है कि भंग न पीनेवाले को भंग पीने से जम्हाइयाँ आती हैं और भंग पीनेवालों को भंग न पीने से जम्हाइयाँ आती हैं।

बाहर निकलते ही हम लोग प्रायः पहला काम यह करते हैं कि किसी से शादी कर डालते हैं और फिर सोचना शुरू करते हैं कि हम यहाँ क्या करने आए थे।

सब वर्गों की हँसी और ठहाके अलग-अलग होते हैं।

उर्दू कवियों की सबसे बड़ी विशेषता उनका मातृभूमि-प्रेम है। इसलिए बंबई और कलकत्ता में भी वे अपने गाँव या क़स्बे का नाम अपने नाम के पीछे बाँधे रहते हैं और उसे खटखटा नहीं समझते। अपने को गोंडवी, सलोनवी और अमरोहवी कहकर वे कलकत्ता-बंबई के कूप-मंडूक लोगों को इशारे से समझाते हैं कि सारी दुनिया तुम्हारे शहर ही में सीमित नहीं है। जहाँ बंबई है, वहाँ गोंडा भी है।

शहर में चायघर, कमेटी-रूम, पुस्तकालय और विधानसभा की जो उपयोगिता है, वही देहात में सड़क के किनारे बनी हुई पुलिया की है।

गन्ना चूसना हो तो अपने खेत को छोड़कर बग़ल के खेत से तोड़ता है और दूसरों से कहता है कि देखो, मेरे खेत में कितनी चोरी हो रही है। वह ग़लत नहीं कहता है क्योंकि जिस तरह उसके खेत की बग़ल में किसी दूसरे का खेत है, उसी तरह और के खेत की बग़ल में उसका खेत है और दूसरे की संपत्ति के लिए सभी के मन में सहज प्रेम की भावना है।

हृदय-परिवर्तन के लिए रोब की ज़रूरत है, रोब के लिए अँग्रेज़ी की ज़रूरत है।

हिंदुस्तान में पढ़े-लिखे लोग कभी-कभी एक बीमारी के शिकार हो जाते हैं। उसका नाम ‘क्राइसिस ऑफ़ कांशस’ है। कुछ डॉक्टर उसी में 'क्राइसिस ऑफ़ फेथ' नाम की एक दूसरी बीमारी भी बारीकी से ढूँढ़ निकालते हैं। यह बीमारी पढ़े-लिखे लोगों में आमतौर से उन्हीं को सताती है जो अपने को बुद्धिजीवी कहते हैं और जो वास्तव में बुद्धि के सहारे नहीं, बल्कि आहार-निद्रा-भय-मैथुन के सहारे जीवित रहते हैं (क्योंकि अकेली बुद्धि के सहारे जीना एक नामुमकिन बात है)। इस बीमारी में मरीज़ मानसिक तनाव और निराशावाद के हल्ले में लंबे-लंबे वक्तव्य देता है, ज़ोर-ज़ोर से बरस करता है बुद्धिजीवी होने के कारण अपने को बीमार और बीमार होने के कारण अपने को बुद्धिजीवी साबित करता है और अंत में इस बीमारी का अंत कॉफ़ी-हाउस की बहसों है, शराब की बोतलों में, आवारा औरतों की बाँहों में, सरकारी नौकरी में और कभी-कभी आत्महत्या में होता है।

यह हमारी प्राचीन परंपरा है, वैसे तो हमारी हर बात प्राचीन परंपरा है, कि लोग बाहर जाते हैं और ज़रा-ज़रा सी बात पर शादी कर बैठते हैं।

किसी भी सुबुक-सुबुकवादी उपन्यास में पढ़ा जा सकता है कि नायक ने नायिका के जलते हुए होंठों पर होंठ रखे और कहा, 'नहीं-नहीं निशि, मैं उसे नहीं स्वीकार कर सकता। वह मेरा सत्य नहीं है। वह तुम्हारा अपना सत्य है।'

फ़िलासफ़ी बघारना प्रत्येक कवि और कथाकार के लिए अपने-आपमें एक ‘वैल्यू’ है, क्योंकि मैं कथाकार हूँ, क्योंकि ‘सत्य’, ‘अस्तित्व’ आदि की तरह ‘गुटबंदी’ जैसे एक महत्त्वपूर्ण शब्द का ज़िक्र आ चुका है, इसीलिए सोलह पृष्ठ के लिए तो नहीं, पर एक-दो पृष्ठ के लिए अपनी कहानी रोककर मैं भी पाठकों से कहना चाहूँगा कि सुनो-सुनो हे भाइयो, वास्तव में तो मैं एक फ़िलासफ़र हूँ, पर बचपन के कुसंग के कारण...।

वास्तव में सच्चे हिंदुस्तानी की यही परिभाषा है कि वह इंसान जो कहीं भी पान खाने का इंतज़ाम कर ले और कहीं भी पेशाब करने की जगह ढूँढ़ ले।

शाश्वत साहित्य लिखनेवाला क्रांतदर्शी साहित्यकार भी रेडियो के अहलकारों के सामने झिझककर बात करता है।

आरोप ग़लत हो या सही, पर गुमनाम शिकायत करना एक कायरतापूर्ण कार्य है।

तुम्हारे विचार बहुत ऊँचें हैं पर कुल मिलाकर उससे यही साबित होता है कि तुम गधे हो।

प्रत्येक भारतीय, जो अपना घर छोड़कर बाहर निकलता है—भाषा के मामले में पत्थर हो जाता है। इतनी तरह की बोलियाँ उसके कानों में पड़ती हैं कि बाद में हारकर वह सोचना ही छोड़ देता है कि यह नेपाली है या गुजराती।

हमारा देश भुनभुनानेवालों का देश है। दफ़्तरों और दुकानों में कल-कारख़ानों में, पार्कों और होटलों में, अख़बारों में, कहानियों और अ-कहानियों में, चारों तरफ़ लोग भुनभुना रहे हैं।

किसी गुंडे पर मुक़दमा चल रहा हो तो ग्रामीण भाइयों की यह स्वभाविक इच्छा होती है कि वे शहर घूम आएँ और कचहरी देख लें। गुंडे को अपमानित होते देखकर उन्हें हार्दिक सुख मिलता है और गुंडे को भी—देखो! गाँव के कितने आदमी मेरी मदद के लिए आए हैं—ऐसा समझकर हार्दिक सुख मिलता है।

जय बोलने के मामले में हिंदुस्तानी का भला कोई मुक़ाबला कर सकता है।

यह खाद्य-विज्ञान का सिद्धांत है कि आदमी की अक़्ल तो घास खाकर ज़िंदा रह लेटी है, आदमी ख़ुद इस तरह नहीं रह सकता।

उसके चेहरे पर कुछ-कुछ वैसा ही करुणाजनक भाव आ गया था जो हिंदी सिनेमा में ग़ज़ल गाने के पहले हिरोइन के चेहरे पर आ जाता है।
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गालियों और ग्राम-गीतों का कॉपीराइट नहीं होता।

लौंडो की दोस्ती, जी का जंजाल।

पुनर्जन्म के सिद्धांत की ईजाद दीवानी की अदालतों में हुई है, ताकि वादी और प्रतिवादी इस अफ़सोस को लेकर न मरें कि उनका मुक़दमा अधूरा ही पड़ा रहा। इसके सहारे वे सोचते हुए चैन से मर सकते हैं कि मुक़दमे का फ़ैसला सुनने के लिए अभी अगला जन्म तो पड़ा ही है।

आज भी हिंदुस्तानी शहरों में दो तरह के बाज़ार होते हैं। एक काले यानी नेटिव लोगों का और दूसरा गोराशाही बाज़ार।
aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
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