ज्ञान पर उद्धरण
ज्ञान का महत्त्व सभी
युगों और संस्कृतियों में एकसमान रहा है। यहाँ प्रस्तुत है—ज्ञान, बोध, समझ और जानने के विभिन्न पर्यायों को प्रसंग में लातीं कविताओं का एक चयन।

‘यह सुरक्षित कुसुम ग्रहण करने योग्य है; यह ग्राम्य है, फलतः त्याज्य है; यह गूँथने पर सुंदर लगेगा; इसका यह उपयुक्त स्थान है और इसका यह’—इस प्रकार जैसे पुष्पों को भली-भाँति पहचानकर माली माला का निर्माण करता है, उसी प्रकार सजग बुद्धि से काव्यों में शब्दों का विन्यास करना चाहिए।

हम विचारों के स्तर पर जिससे घृणा करते हैं, भावनाओं के स्तर पर उसी से प्यार करते हैं।

काव्यप्रणयन की इच्छा रखने वाले व्यक्ति को व्याकरण का ज्ञान अर्जित करने का प्रयत्न करना चाहिए।

दूसरे कवियों के शब्दप्रयोगों को देखकर; जो काव्यप्रणयन किया जाता है, भला उसमें कहाँ आनंद मिलेगा?
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कवित्व-शक्ति से विहिन व्यक्ति का शास्त्रज्ञान धनहीन के दान के समान, नपुंसक के अस्त्रकौशल के समान तथा ज्ञानहीन की प्रगल्भता के समान निष्फल होता है।

अज्ञान की निवृत्ति में ज्ञान ही समर्थ है, कर्म नहीं, क्योंकि उसका अज्ञान से विरोध नहीं है और अज्ञान की निवृत्ति हुए बिना राग-द्वेष का भी अभाव नहीं हो सकता।

प्यार—देखभाल, प्रतिबद्धता, ज्ञान, ज़िम्मेदारी, सम्मान और विश्वास का मेल है।

संदेह… एक बीमारी है जो ज्ञान से आती है और पागलपन की ओर ले जाती है।

ज्ञान का कोई पक्ष नहीं है। सभी पक्ष अज्ञान के है। ज्ञान तो निष्पक्ष है।

मुझसे सीखें, यदि मेरे उपदेशों से नहीं, तो मेरे उदाहरण से सीखें कि ज्ञान की खोज कितनी ख़तरनाक है और वह व्यक्ति जो अपने मूल शहर को ही दुनिया मानता है, वह उस व्यक्ति की तुलना में कितना ख़ुश है जो अपनी शक्ति से बड़ा होने की आकांक्षा रखता है।

बिना दूँढ़ने का श्रम किए, प्रिय वस्तु की अनुपमता और अमूल्यता का बोध हो ही नहीं सकता।

अल्प ज्ञान ख़तरनाक वस्तु है।

शब्द कैसे कार्य करते हैं, इसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता। हमें उनके प्रयोग का ‘निरीक्षण’ करना और उससे सीखना पड़ता है।

किसी के बारे में सब कुछ जान लेना, उसे फिर से अजनबी बना देता है।

मैं समझा दूँ कि धर्म से मेरा क्या मतलब है। मेरा मतलब हिंदू धर्म से नहीं है जिसकी मैं बेशक और सब धर्म से ज़्यादा क़ीमत आँकता हूँ। मेरा मतलब उस मूल धर्म से है जो हिंदू धर्म से कहीं कहीं उच्चतर है, जो मनुष्य के स्वभाव तक का परिवर्तन कर देता है, जो हमें अंतर के सत्य से अटूट रूप से बाँध देता है और जो निरंतर अधिक शुद्ध और पवित्र बनाता रहता है। वह मनुष्य की प्रकृति का ऐसा स्थायी तत्त्व है जो अपनी संपूर्ण अभिव्यक्ति के लिए कोई भी क़ीमत चुकाने को तैयार रहता है और उसे तब तक बिल्कुल बेचैन बनाए रखता है जब तक उसे अपने स्वरूप का ज्ञान नहीं हो जाता, अपने स्त्रष्टा के और अपने बीच का सच्चा संबंध समझ में नहीं आ जाता।

बलिदान किए बिना कोई भी बड़ा ज्ञान प्राप्त नहीं किया जा सकता है।

किसी विषय में अधूरे ज्ञान से अच्छा है उस विषय में अज्ञान।

मनुष्य जितना समझता है, उससे कहीं अधिक जानता है।

गल्प लिखने के लिए आपको संगठित धोखाधड़ी में शामिल होना पड़ता है, शब्दों के सुदूर बंदरगाह में अनुभव का शोधन करना पड़ता है।

अपने अनुभव, भाषा और ज्ञान की गरिमा के बारे में कोई भय या शर्म मत रखो।

सामान्य ज्ञान दर्शन का लोकगीत है।


आत्मज्ञान ही हमारी चेतना की शर्त और सीमा है। शायद इसलिए ही कुछ लोग ऐसे होते हैं जो अपने अनुभव की छोटी परिधि के बाहर की बातें बहुत कम जानते हैं। वे अपने भीतर देखते हैं और उन्हें जब वहाँ कुछ नहीं मिलता तो वे यह निष्कर्ष निकाल लेते हैं कि बाहर कुछ नहीं है।

अत्यधिक ज्ञानवान् व्यक्ति को झूठ न बोलना कठिन लगता है।

स्त्रियों में जो मनुष्य जाति से भिन्न स्त्रियाँ हैं, उनमें भी बिना शिक्षा के ही चतुरता देखी जाती है, जो ज्ञान संपन्न है, उनका तो कहना ही क्या! कोयल आकाश में उड़ने की सामर्थ्य होने तक अपने बच्चों का अन्य पक्षियों से पालन करवाती है।

जो आप जानते हैं, उसे लिखें।

सिर्फ़ शैतान के पास ही अपने ख़ुद के बारे में ज्ञान है।

जो व्यक्ति ज्ञान की तलवार से तृष्णा को काटकर, विज्ञान की नौका से अज्ञान रूपी भवसागर को पार कर, विष्णुपद को प्राप्त करता है, वह धन्य है।

धर्म का प्रवाह, कर्म, ज्ञान और भक्ति इन तीन धाराओं में चलता है। इन तीनों के सामंजस्य से धर्म अपनी पूर्ण सजीव दशा में रहता है। किसी एक के भी अभाव से वह विकलांग रहता है।

जो वेदों का अध्ययन तथा उपनिषद्, साँख्य और योगों का ज्ञान है, उनके कथन से क्या फल है? क्योंकि उनसे नाटक में कुछ भी गुण नहीं आता है। यदि नाटक के वाक्यों की प्रौढ़ता और उदारता तथा अर्थ-गौरव है, तो वही पांडित्य और विदग्धता की सूचक है।

यदि गुरु (बड़ा) भी घमंड में आकर कर्त्तव्याकर्त्तव्य का ज्ञान खो बैठे और कुमार्ग पर चलने लगे तो उसे भी दंड देना आवश्यक हो जाता है।

अत्यधिक ज्ञान मनुष्य का सबसे बड़ा ख़ज़ाना है।

ज्ञान की अपेक्षा (परमेश्वर के स्वरूप का) ध्यान श्रेष्ठ है।

पढ़ाई सभी कामों में सुधार लाना सिखाती है।

हमारे देश में साहित्यकार फ़र्शी क़ालीन की तरह या तो ग़ैरज़रूरी शोभा की सामग्री है, या शौकिया रौंदने की चीज़, यहाँ तो उसके बारे में कुछ जानना किसी कामकाज़ी नागरिक के लिए भी अनावश्यक है। तभी रंजीता और विजयेता पंडित के बारे में कहानी-लेखिका मृदुला गर्ग को सबकुछ मालूम होगा, पर रंजीता और विजयेता को शायद पता भी न होगा कि मृदुला गर्ग और मेहरुन्निसा परवेज़ क्या हैं और कहाँ हैं।

न शरीर तट है, न मन है। उन दोनों के पीछे जो चैतन्य है, साक्षी है, द्रष्टा है, वह अपरिवर्तित नित्य बोध मात्र ही वास्तविक तट है। जो अपनी नौका की उस तट से बाँधते है, वे अमृत को उपलब्ध होते है।

"विचारों को छोड़ों और निर्विचार हो रहो, पक्षों को छोड़ो और निष्पक्ष हो जाओ—क्योंकि इसी भाँति
वह प्रकाश उपलब्ध होता है, जो कि सत्य को उद्घाटित करता है।’’

तुम्हारा दुःख उस छिलके का तोड़ा जाना है, जिसने तुम्हारे ज्ञान को अपने भीतर छिपा रखा है।

अपने अंतरतम की गहराइयों में इस प्रश्न को गूँजने दो: 'मैं कौन हूँ?' जब प्राणों की पूरी शक्ति से कोई पूछता है, तो उसे अवश्य ही उत्तर उपलब्ध होता है।


जब ज्ञान से आलोकित तथा कर्म के द्वारा नियंत्रित और भीमशक्ति प्राप्त प्रबल स्वभाव परमात्मा के प्रति प्रेम एवं आराधना-भाव में उन्नत होता है, तब वही भक्ति टिक पाती है तथा आत्मा को परमात्मा से सतत संबद्ध बनाए रखती है।

हे संजय! ज्ञान का विधान भी कर्म को साथ लेकर ही है, अतः ज्ञान में भी कर्म विद्यमान है। जो कर्म के स्थान पर कर्मों के त्याग को श्रेष्ठ मानता है, वह दुर्बल है, उसका कथन व्यर्थ ही है।

जो विद्याएँ कर्म का संपादन करती हैं, उन्हीं का फल दृष्टिगोचर होता है, दूसरी विद्याओं का नहीं। विद्या तथा कर्म में भी कर्म का ही फल यहाँ प्रत्यक्ष दिखाई देता है। प्यास से पीड़ित मनुष्य जल पीकर ही शांत होता है।

हमारे भीतर जो प्राण-शक्ति है, उसी का नाम अमृत है। बच्चे के भीतर यह प्राण शक्ति या जीवन की धारा इतनी बलवती होती है कि उसके मनःक्षेत्र में मृत्यु का भाव कभी आता ही नहीं। यह असंभव है कि बच्चे को हम मृत्यु का ज्ञान करा सकें।

प्रेम में वह विस्मृति है जो संयम, ज्ञान और धारणा पर पर्दा डाल देती है।

मुझमें न भगवान् का प्रेम है, न श्रवणादि भक्ति है, न वैष्णवों का योग है, न ज्ञान है, न शुभ कर्म है, और कितने आश्चर्य की बात है कि उत्तम गति भी नहीं है, फिर भी हे भगवान्! हीन अर्थ को भी उत्तम बना देने वाले आपके विषय में आबद्धमूला मेरी आशा ही मुझको प्रयत्नशील बनाए रहती है।

जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञानदशा कहलाती है, उसी प्रकार हृदय की यह मुक्तावस्था रसदशा कहलाती है। हृदय की इसी मुक्ति की साधना के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्द-विधान करती आई है, उसे कविता कहते हैं।

बहुत कम बच्चे इतनी हिंदी सीख पाएँगे कि वे निराला को पढ़कर ‘जागो फिर एक बार’ को अर्थ दे सकें।

ज्ञान की प्रथम गुरु माता है। कर्म का प्रथम गुरु पिता है। प्रेम का प्रथम गुरु स्त्री है और कर्त्तव्य का प्रथम गुरु संतान है।

जन्म का अंत है, जीवन का नहीं। और मृत्यु का प्रारंभ है, जीवन का नहीं। जीवन तो उन दोनों से पार है। जो उसे नहीं जानते हैं, वे जीवित होकर भी जीवित नहीं हैं। और जो उसे जान लेते हैं, वे मर कर भी नहीं मरते।
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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
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