
इतिहासकार को हरेक के साथ न्याय करने का अपना मिशन कभी भूलना नहीं चाहिए। निर्धन और संपत्तिवान सब उसकी क़लम के आगे बराबर हैं; उसके सामने किसान अपनी दरिद्रता की भव्यता के साथ उपस्थित होता है, और धनवान अपनी मूर्खता की क्षुद्रता के साथ।


आज के ज़माने में ऐसा होता है कि बहुत सी बातें क़ानून के अनुकूल होने पर भी न्यायबुद्धि के प्रतिकूल होती हैं। इसलिए न्याय के रास्ते धन कमाना ही ठीक हो, तो मनुष्य का सबसे पहला काम न्याय-बुद्धि को सीखना है।

दुनिया में परोपकार की नहीं, बल्कि न्याय की कमी है।

यह वह बात नहीं है जो वकील बताए कि मुझे करनी चाहिए, अपितु यह वह बात है जो मानवता, विवेक और न्याय बताते हैं कि मुझे करनी चाहिए।

और न्याय-प्रिय न्यायाधीशों!
तुम उसे क्या सज़ा दोगे जो शरीर से ईमानदार है लेकिन मन से चोर है?
और तुम उस व्यक्ति को क्या दंड दोगे जो देह की हत्या करता है लेकिन जिसकी अपनी आत्मा का हनन किया गया है?
और उस पर तुम मुक़दमा कैसे चलाओगे जो आचरण में धोखेबाज़ और ज़ालिम है लेकिन जो ख़ुद सत्रस्त और अत्याचार-पीड़ित है?
और क्या उन्हें कैसे सज़ा दोगे जिनको पश्चात्ताप पहले ही उनके दुष्कृत्यों से अधिक है?
और क्या यह पश्चात्ताप ही उस क़ानून का दिया हुआ न्याय नहीं जिसका पालन करने का प्रयास तुम भी करते रहते हो?

मनुष्य को चाहिए कि वह ईर्ष्यारहित, स्त्रियों का रक्षक, संपत्ति का न्यायपूर्वक विभाग करने वाला, प्रियवादी, स्वच्छ तथा स्त्रियों के निकट मीठे वचन बोलने वाला हो, परंतु उनके वश में कभी न हो।

न्याय और निष्काम कर्मयोग हृदय का है। बुद्धि से हम निष्कामता को नहीं पहुँच सकते।

वह शब्द नहीं, वह अर्थ नहीं, वह न्याय नहीं, वह कला नहीं, जो काव्य का अंग न बनती हो। कवि का दायित्व कितना बड़ा है!

हमें विश्वास करना चाहिए कि न्याय शक्ति का जनक है और उस विश्वास के आधार पर, जैसा हम समझते हैं, हमें अंत तक अपना कर्त्तव्य पालन करने का साहस करना चाहिए।

न्याय तो होता है वास्तव में मनुष्य के हृदय में, और विचारक का काम करती है उसकी आत्मा।

कौन न कहेगा कि महत्त्वशाली व्यक्तियों के सौभाग्य-अभिनय में धूर्तता का बहुत हाथ होता है। जिसके रहस्यों को सुनने से रोम कूप स्वेद जल से भर उठे, जिसके अपराध का पात्र छलक रहा है, वही समाज का नेता है। जिसके सर्वस्व-हरणकारी करों से कितनों का सर्वनाश हो चुका है, वही महाराज है। जिसके दंडनीय कार्यो का न्याय करने में परमात्मा के समय लगे, वही दंड-विधायक है।

राजा न्याय कर सकता है, परंतु ब्राह्मण क्षमा कर सकता है।

न्याय की धारणा मनुष्य-समाज को में रखने वाली आंतरिक श्रृंखला है। व्यवस्था और क्रम अपनी एक न्याय की क्रम और नियंत्रण समाज की प्रत्येक धारणा रखता है। यह धारणा उस सामाजिक व्यवस्था को पूर्णता के लक्ष्य और आदर्श की ओर संकेत करती रहती है। विचारों की क्रांति का काम हमारी न्याय की धारणा को नए मार्ग पर लाना है।

एक तरफ़ निर्दयता में यह सदी बहुत बढ़ी हुई है, तो दूसरी तरफ़ न्याय की इच्छा में भी।

अभी भी स्वर्ग सर्वोपरि है, वहाँ एक न्यायाधीश विराजमान है जिसे कोई भी राजा भ्रष्ट नहीं कर सकता।

जिस प्रकार बिरले ही दुराचारियों को अपने कुकर्मों का दंड मिलता है, उसी प्रकार सज्जनता का दंड पाना अनिवार्य है।

मैं न्याय माँग रहा हूँ, दया की भीख नहीं। जूरी में से एक भी व्यक्ति यदि यह राय दे देता है कि राजद्रोह के अभियोग से मैं पूर्णरूपेण निर्दोष हूँ, और मैंने जो कुछ भी क्रिया ठीक किया, तो मैं संतोष कर लूँगा।

विलंबित न्याय न्याय से वंचित करना है।

बल रहित न्याय असमर्थ है, न्यायरहित बल अत्याचार है।

न्याय की अदालतों से भी एक बड़ी अदालत होती है। वह अदालत अंतर की आवाज़ की है और वह अन्य सब अदालतों से ऊपर की अदालत है।

यह निश्चित है कि अज्ञान, ताक़त के साथ मिलकर; न्याय के लिए सबसे क्रूर शत्रु हो सकता है।
aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere