दुख पर उद्धरण
दुख की गिनती मूल मनोभावों
में होती है और जरा-मरण को प्रधान दुख कहा गया है। प्राचीन काल से ही धर्म और दर्शन ने दुख की प्रकृति पर विचार किया है और समाधान दिए हैं। बुद्ध के ‘चत्वारि आर्यसत्यानि’ का बल दुख और उसके निवारण पर ही है। सांख्य दुख को रजोगुण का कार्य और चित्त का एक धर्म मानता है जबकि न्याय और वैशेषिक उसे आत्मा के धर्म के रूप में देखते हैं। योग में दुख को चित्तविक्षेप या अंतराय कहा गया है। प्रस्तुत संकलन में कविताओं में व्यक्त दुख और दुख विषयक कविताओं का चयन किया गया है।


जीवन के बारे में सभी विचार कठोर हैं, क्योंकि जीवन कठोर है। मैं इस बात से दुखी हूँ, लेकिन इसे बदल नहीं सकती।

मैंने दुखों, जीवन के ख़तरों और मृत्यु के बाद के जीवन के बारे में, सज़ा के बारे में… कम उम्र में ही जान लिया। इस सबकी उम्मीद गुनाहगार नर्क में करते हैं।

जो लोग सौंदर्य के उपभोग में उन्मत्त हैं, उनकी यंत्रणा कैसी है, इसका अनुभव मैं भोजन करने के लिए बैठने पर ही करता हूँ। मेरे जीवन में घोर दुःख यह है कि अन्न-व्यंजन थाली में रखते-रखते ही ठंडे हो जाते हैं। उसी प्रकार सौंदर्य-रूपी मोटे चावल का भात है, प्रेम-रूपी केला के पत्तल पर डालते ही ठंडा हो जाता है—फिर कौन रुचि से उसे खाए? अंत में वेश-भूषा-रूपी इमली की चटनी मिलाकर, ज़रा अदरक-नमक के क़तरे डालकर किसी तरह निगल जाना पड़ता है।

नारी पुरुष से पूजा नहीं चाहती। वह जीवन में सहयोग चाहती है दुःख और सुख के साथ। तन और मन का विलीनीकरण। दो जीवनों का एक होना।

जो लोग पूरी तरह से समझदार और ख़ुश हैं, दुःख की बात है वे अच्छा साहित्य नहीं लिखते हैं।

घोर अंधकार में जिस प्रकार दीपक का प्रकाश सुशोभित होता है उसी प्रकार दुःख का अनुभव कर लेने पर सुख का आगमन आनंदप्रद होता है किंतु जो मनुष्य सुख भोग लेने के पश्चात् निर्धन होता है वह शरीर धारण करते हुए भी मृतक के समान जीवित रहता है।

कामना, भय, लोभ अथवा जीवन-रक्षा के लिए भी धर्म का त्याग नहीं करना चाहिए। धर्म नित्य है जबकि सुख-दुःख अनित्य हैं, जीव नित्य है तथा बंधन का हेतु अनित्य है।

यदि समग्र भाव से समस्त नारी जाति के दुःख-सुख और मंगल-अमंगल की तह में देखा जाए, तो पिता, भाई और पति की सारी हीनताएँ और सारी धोखेबाज़ियाँ क्षण भर में ही सूर्य के प्रकाश के समान आप से आप सामने आ जाती हैं।

और एक दिन ऐसा आएगा जब उन सभी चीज़ों का कोई निशान नहीं रहेगा जिसने मेरे जीवन को उलझाया और मुझे दुखी किया।

अगर मैं ख़ुश हो सकता हूँ, तब मैं खुश हो जाऊँगा; अगर मुझे मुझे दुखी होना है, तब मुझे दुख उठाना ही पड़ेगा।

मैं, मृत्यु को ज़िंदा रहकर, दुःख सहकर, ग़लतियाँ करके, ज़ोखिम उठाकर, देकर, गँवाकर स्थगित करती हूँ।

आपको केवल उन्हीं पुस्तकों को लिखना चाहिए जिनके न होने से आप दुखी हैं।

इस दुनिया में दुख का बड़ा कारण मूल पाप नहीं; बल्कि एक तरह की मूल, अकल्पनीय और ज़िद्दी मूर्खता है।

जीवन को केवल वे लोग वास्तव में जानते हैं जो दुःख उठाते हैं, हार जाते हैं, विपत्ति सहन करते हैं और एक के बाद एक हार का सामना करते हैं।

दुखी व्यक्ति कट्टरपंथी और उदास नास्तिक होता है।

एक छोटे कलाकार के पास एक महान कलाकार के सभी त्रासिक दुःख और संताप होते हैं और वह महान कलाकार नहीं होता।

वस्तुतः स्त्रियों को अपने इष्ट व्यक्ति (प्रियतम) के प्रवास से उत्पन्न दुःख अत्यंत असह्य होते हैं।

पुरुषों का क्षणिक दुःख तो क्षण भर में ही जाता है, लेकिन जिसे सदा दुःख सहना पड़ता है वह है नारी।

जिसने भी प्रेम किया है, वह जीवन में आने वाले संपूर्ण दुख और आनंद के बारे में जानता है।

सती स्त्रियों, अपने दुःख को तुम संभाल कर रखना। वह दुःख नहीं, सुख है। तुम्हारा नाम लेकर बहुतेरे पार उतर गए हैं और उतरेंगे।

दुःख के प्रतिकार से थोड़ा दुःख रहने पर भी मनुष्य सुख की कल्पना कर लेता है।

ईश्वर केवल उन लोगों को छोड़ देता है जो ख़ुद को छोड़ देते हैं, और जो भी अपने दुख को अपने दिल के भीतर बंद रखने की हिम्मत रखता है, वह उससे लड़ने में—शिकायत करने वाले व्यक्ति से अधिक मज़बूत होता है।

यह दुखद सच्चाई है कि सबसे ज़्यादा बुराई उन लोगों द्वारा की जाती है जो कभी भी अच्छे या बुरे होने का मन नहीं बना पाते हैं।

धन प्राप्ति के सभी उपाय मन का मोह बढ़ाने वाले हैं। कृपणता, दर्प, अभिमान, भय और उद्वेग-इन्हें विद्वानों ने देहधारियों के लिए धनजनित दुःख माना है।

अपने दोष हम देखना नहीं चाहते हैं, दूसरों के देखने में हमें मज़ा आता है। बहुत दुःख तो इसी आदत में से पैदा होता है।

भगवान कितना अधिक दुःख-कष्ट मनुष्य को देते हैं, तब उसे सच्ची मानवता तक पहुँचा देते हैं।

मरने पर, जैसे भी हो, मैं अपने इस दुःखी देश में ही फिर से जन्म लूँ।

मरने में अल्प दुख है किंतु दरिद्रता से अनन्त दुख होता है।

मेरा घर भी वहीं है जहाँ पीड़ा का निवास है। जहाँ-जहाँ दुःख विद्यमान है वहाँ-वहाँ मैं विचरता हूँ।

धन की इच्छा सबसे बड़ा दुःख है, किंतु धन प्राप्त करने में तो और भी अधिक दुःख है और जिसकी धन में आसक्ति हो गई है, उसे धन का वियोग होने पर उससे भी अधिक दुःख होता है।

स्त्री के दुःख इतने गंभीर होते हैं कि उसके शब्द उसका दशमांश भी नहीं कह सकते।

दुःख की घाटी में, पंख फैलाओ।

घमंडी लोग अपने लिए दुःख उत्पन्न कर देते हैं।

मोहित करती हैं, मदयुक्त बनाती हैं, उपहास करती हैं भर्त्सना करती हैं, प्रमुदित करती हैं, दुःख देती हैं। ये स्त्रियाँ पुरुषों के दयामय हृदयों में प्रवेश कर क्या नहीं करती हैं?

जहाँ कहीं अपने आपको उत्सर्ग करने की, अपने आपको खपा देने की भावना प्रधान है, वहीं नारी है। जहाँ कहीं दुःख-सुख की लाख-लाख धाराओं में अपने को दलित द्राक्षा के समान निचोड़ कर दूसरे को तृप्त करने की भावना प्रबल है, वहीं 'नारीतत्त्व' है या शास्त्रीय भाषा में कहना हो, तो 'शक्तित्त्व' है। नारी निषेध-रूपा है। वह आनंद भोग के लिए नहीं आती, आनंद लुटाने के लिए आती है।

बहुत कम जीने की तुलना में, मर जाना कम दुखद लगता है।

मैं रोती नहीं हूँ। दुर्भाग्यवश, मुझे रोना कम आता है, इसलिए मेरे दुख मेरे अंदर ही रहते हैं।

जब तक हम दुख उठाते हैं, हम ज़िंदा हैं।

दुख को नाम देना, उसे बढ़ा-चढ़ाकर, उसके सबसे छोटे घटकों में विघटित करना—शोक को कम करने का निश्चित तरीक़ा है।

धर्मवस्तु को एक दिन हम लोगों ने जैसे दल बाँधकर मतलब गाँठकर पकड़ना चाहा था, वैसे उसे नहीं पकड़ा जा सकता। ख़ुद पकड़ाई दिए बग़ैर शायद उसे पाया ही नहीं जा सकता। परम दुःख की मूर्ति के रूप में जब वह मनु्ष्य की चरम वेदना की धरती पर पैर रखकर अकेला आ खड़ा हो, तब तो उसे पहचान ही लेना चाहिए। ज़रा भी भूल-भ्राँति उससे सही नहीं जाती, ज़रा में मुँह फेरकर लौट जाता है।

दुःख सबको भाँजता है
और—
चाहे स्वयं सबको मुक्ति देना वह न जाने, किंतु जिनको भाँजता है उन्हें यह सीख देता है कि सबको मुक्त रखें।

मनुष्य को बार-बार मानसिक दुःखों की प्राप्ति के कारण दो ही हैं-चित्त का भ्रम और अनिष्ट की प्राप्ति। तीसरा कोई कारण सम्भव नहीं है।

धन के उपार्जन में दुःख होता है। और उपार्जित धन की रक्षा में भी दुःख होता है। आय में दुःख व्यय में दुःख। सब प्रकार से दुःख देने वाले धन को धिक्कार है।

तुम्हारा दुःख उस छिलके का तोड़ा जाना है, जिसने तुम्हारे ज्ञान को अपने भीतर छिपा रखा है।

जो केवल ऐश्वर्य के पालने में पले हैं, वे ग़रीबों के दुःखों को नहीं जान सकते।

दूसरों के दोषों के समान अपना दोष देखने लगे तो जीवमात्र को कोई दुःख कभी नहीं हो सकता।

दुःख से दुःखित न होने वाले उस दुःख को ही दुःखित कर देंगे।


दुःख को दूर करने के लिए सबसे अच्छी दवा यही है कि उसका चिंतन छोड़ दिया जाए क्योंकि चिंतन से वह सामने आता है और अधिकाधिक बढ़ता रहता है।
aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere