
जहाँ कोई क़ानून नहीं होता, वहाँ अंतःकरण होता है।
-
संबंधित विषय : आत्म-चिंतनऔर 2 अन्य


अंतःकरण हम सबको कायर बना देता है।

अंतःकरण प्रत्येक व्यक्ति के चरित्र का सार है।

मनुष्य का अंतःकरण देववाणी है।

मनुष्य की आत्मा ही राजनीति है, अर्थशास्त्र है, शिक्षा है और विज्ञान है, इसलिए अंतरात्मा को सुसंस्कृत बनाना ही सबसे अधिक आवश्यक है। यदि हम अंतरात्मा को सुशिक्षित बना लें तो राजनीति, अर्थशास्त्र, शिक्षा और विज्ञान के प्रश्न स्वयं ही हल हो जाएँगे।

ख़ुशी का अनुभव करते हुए हमें उसके प्रति चेतन होने में कठिनाई होती है। जब ख़ुशी गुज़र जाती है और हम पीछे मुड़कर उसे देखते और अचानक से महसूस करते हैं—कभी-कभार आश्चर्य के साथ—कितने ख़ुश थे हम।

सत्पुरुषों की महानता उनके अंतःकरण में होती है, न कि लोगों की प्रशंसा में।

शरीर एक बदलता हुआ प्रवाह है और मन भी। उन्हें जो किनारे समझ लेते है, वे डूब जाते है।

अंतःकरण का दंश मनुष्यों को दंशन सिखाता है।

उस मनुष्य का किसी बात में विश्वास न करो जो हर बात में अंतःकरण वाला नहीं है।

आत्मा के लिए अच्छा अंतःकरण वैसा ही है जैसा शरीर के लिए स्वास्थ्य।

जहाँ अंतःकरण का राज्य प्रारंभ होता है, वहाँ मेरा राज्य समाप्त हो जाता है।

स्वतंत्रता से भी अधिक शक्तिशाली एक और शब्द है—'अंतःकरण'।

अंतःकरण तो कायरों द्वारा प्रयुक्त शब्दमात्र है, सर्व-प्रथम इसकी रचना शक्तिशालियों को भयभीत रखने के लिए हुई थी।

जीवित मनुष्य के लिए दुष्ट अंतःकरण की यंत्रणा तो नरक है।

अपने वक्षस्थल में स्वर्गीय अग्नि की उस चिंगारी को सजीव रखने का प्रयत्न करो जिसे अंतःकरण कहते हैं।

चेतना और रूचि का फलक बड़ा होना ही चाहिए।

क्या तुम नहीं देखते कि तुम्हारा अंतःकरण तुम्हारे अंदर विराजमान अन्य लोग हैं, अन्य कुछ नहीं ?

मनुष्य हर विवेक से ऊपर है—एक चेतना, जो प्रकृति का नहीं बल्कि इतिहास का उत्पाद है।

न शरीर तट है, न मन है। उन दोनों के पीछे जो चैतन्य है, साक्षी है, द्रष्टा है, वह अपरिवर्तित नित्य बोध मात्र ही वास्तविक तट है। जो अपनी नौका की उस तट से बाँधते है, वे अमृत को उपलब्ध होते है।

अच्छा अंतःकरण सर्वोत्तम ईश्वर है।

हमारा काम तभी अंतरात्मा से प्रेरित हो सकता है जब अपने-आप में वह स्वच्छ हो, उसका हेतु स्वच्छ हो और उसका परिणाम भी स्वच्छ हो।

ईश्वर कोई बाह्य सत्य नहीं है। वह तो स्वयं के ही परिष्कार की अंतिम चेतना अवस्था है। उसे पाने का अर्थ स्वयं वही हो जाने के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।

समाज में गीत-वाद्य, नाट्य- नृत्य का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है, ये बड़ी मनोहर और उपयोगी कलाएँ हैं। पर हैं तभी, जब इन के साथ संस्कृति का निवास-स्थान पवित्र संस्कृत अंतःकरण हो। केवल 'कला' तो 'काल' बन जाती है।

वह सबको शरण देने वाला है, दाता और सहायक है। अपराधों को क्षमा करने वाला है, जीविका देने वाला है और चित्त को प्रसन्न करने वाला है।

हम ध्यान द्वारा शुद्ध और सूक्ष्म हुए मन से परमात्मा के स्वरूप का अनुभव तो कर सकते हैं, किंतु वाणी द्वारा उसका वर्णन नहीं कर सकते, क्योंकि मन के द्वारा ही मानसिक विषय का ग्रहण हो सकता है और ज्ञान के द्वारा ही ज्ञेय को जाना जा सकता है।

प्रेम और जो कुछ उससे उत्पन्न होता है, क्रांति और जो कुछ वह रचती है और स्वतंत्रता और जो कुछ उससे पैदा होता है, ये परमात्मा के तीन रूप हैं और परमात्मा सीमित और चेतन संसार का अनंत मन है।

उपवास करने से चित्त अंतर्मुख होता है, दृष्टि निर्मल होती है और देह हलकी बनी रहती है।

कवि को अपने कार्य में अंतःकरण की तीन वृत्तियों से काम लेना पड़ता है—कल्पना, वासना और बुद्धि। इनमें से बुद्धि का स्थान बहुत गौण है। कल्पना और वासनात्मक अनुभूति ही प्रधान है।

राम और कृष्ण के मिथक संकल्प और संवेग के चैतन्य स्रोत हैं।

चेतना जब आत्मा में ही विश्रांति पा जाए, वही पूर्ण अहंभाव है।

लेखक स्वभाव से सपने देखने वाला होता है—सचेत सपने देखने वाला।

जागृति का जो विस्मरण है वही स्वप्नसृष्टि का विस्तार है। वस्तु से विमुख जो अहंकार है वही त्रिगुणात्मक संसार है।

बालकों व मूर्खों की तो गिनती क्या, महान लोगों की भी चित्तवृत्ति सदा एकाग्र नहीं रहती।

मेरे सामने जब कोई असत्य बोलता है तब मुझे उस पर क्रोध होने के बजाए स्वयं अपने ही ऊपर अधिक कोप होता हैं, क्योंकि मैं जानता हूँ कि अभी मेरे अंदर-तह में-असत्य का वास है।

धन जोड़कर भक्ति का दिखावा करने से कोई लाभ नहीं क्योंकि ऐसा करने से मन में वासना और भी बढ़ती जाएगी। जिनका चित्त वासनाओं में फँसा हुआ है, उन्हें अंतरात्मा के दर्शन कैसे हो सकते हैं?

जो है नहीं, उस चित्र को दिखाती है, पर होती है केवल दीवार। उसी प्रकार संपूर्ण जगदाकार से जो प्रकाशित होती है, वह संवित्ति (संवित्, चेतना) है।

मनुज चेतना को किसका डर?


बिना आदि चेतना (आदि चैतन्य) के चेतना पैदा हो ही नहीं सकती। भूत से क्यों और कैसे चेतना पैदा होगी।

चैतन्य को जड़शक्ति का औद्धत्य लील जाने को व्याकुल है।

भय की पूरी समस्या को समझने में ही आपके सारे विश्वास विदा हो जाते हैं।
भय की पूरी समस्या को समझने में ही आपके सारे विश्वास विदा हो जाते हैं।
aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
संबंधित विषय
- अचेतन
- अनुभव
- अपराध
- अहंकार
- आकांक्षा
- आज़ादी
- आजीविका
- आत्म
- आत्म-चिंतन
- आत्मा
- आनंदमय
- आस्था
- इतिहास
- ईश्वर
- उपवास
- एहसास
- कमज़ोर
- कर्म
- क्रांति
- क्रोध
- कल्पना
- कवि
- कृष्ण
- क्षमा
- चेतना
- ज्ञान
- जीवन
- झूठ
- डर
- तस्वीर
- थिएटर
- देवत्व
- देह
- नृत्य
- नियम
- प्रकृति
- प्रकाश
- प्रेम
- पवित्रता
- पाप
- पौराणिक कथा
- बच्चे
- ब्रह्मांड
- भक्ति
- भूख
- मृत्यु
- मदद
- मनुष्य
- मनुष्यता
- मूर्ख
- राम
- वासना
- शांति
- सुख
- सच
- समझना
- समाज
- स्वप्न
- संस्कृति
- संसार
- साफ़