गुरु पर उद्धरण
मध्यकालीन काव्य में
गुरु की महिमा की समृद्ध चर्चा मिलती है। प्रस्तुत संचयन में गुरु-संबंधी काव्य-रूपों और आधुनिक संदर्भ में शिक्षक-संबंधी कविताओं का संग्रह किया गया है।

रुखाई अच्छी शिक्षक है, पर यह बहुत रूखी होती है।

यदि गुरु (बड़ा) भी घमंड में आकर कर्त्तव्याकर्त्तव्य का ज्ञान खो बैठे और कुमार्ग पर चलने लगे तो उसे भी दंड देना आवश्यक हो जाता है।

स्वामी का कार्य, गुरु भक्ति, पिता के आदेश का पालन, यही विष्णु की महापूजा है।

बड़ा भाई, पिता तथा जो विद्या देता है, वह गुरु—ये तीनों धर्म-मार्ग पर स्थित रहने वाले पुरुषों के लिए पिता के तुल्य माननीय हैं।

वेद से बड़ा शास्त्र नहीं है, माता के समान गुरु नहीं है, धर्म से बड़ा लाभ नहीं है तथा उपासना से बड़ी तपस्या नहीं है।

आप इस चराचर जगत् के पिता और गुरु से भी बड़े गुरु एवं अति पूजनीय हैं। हे अप्रतिम प्रभाव! तीनों लोकों में आप के समान भी दूसरा कोई नहीं है, फिर अधिक श्रेष्ठ कैसे होगा?

गुरु इस संसार सागर से पार उतारने वाले हैं और उनका दिया हुआ ज्ञान यहाँ नौका के समान बताया गया है। उस ज्ञान को पाकर भवसागर से पार और कृतकृत्य हुआ मनुष्य (नदी को पार कर लेने पर नाव और नाविक को छोड़ने के समान) मुक्त हुआ दोनों को छोड़ दे।

गौरव में उपाध्याय दस आचार्यों से बड़ा, पिता दस उपाध्यायों से बड़ा और माता दस पिताओं से बड़ी है। माता अपने गौरव से सभी पृथ्वी को भी तिरस्कृत कर देती है। अतः माता के समान कोई दूसरा गुरु नहीं है।

हे भारत! यदि किसी गुरुजन को 'तू' कह दिया जाए तो यह उसका वध ही हो जाता है।

तीक्ष्ण प्रतिभा गुरु के उपदेश की प्रतीक्षा नहीं करती है और पीड़ा समय की प्रतीक्षा नहीं करती है।


किसी भी व्यवहार के कारण गुरु अपमान के योग्य नहीं होता। जैसे माननीय गुरु हैं, वैसे तो माता-पिता भी नहीं हैं।

मेरे गुरु महाराज कहा करते थे— 'जो कुछ भी धन हो, उससे पुस्तकें प्रकाशित करो।' ग्रंथ प्रकाशित होते देखकर उन्हें अपार सुख होता था। अतः यह कार्य अच्छी प्रकार से करो। गुरु महाराज कहते थे— 'छापो, और छापो'। मैंने अपनी पुस्तकें छापी हैं, अब तुम भी ऐसा ही करो।
aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere