आँख पर उद्धरण
आँखें पाँच ज्ञानेंद्रियों
में से एक हैं। दृश्य में संसार व्याप्त है। इस विपुल व्याप्ति में अपने विविध पर्यायों—लोचन, अक्षि, नैन, अम्बक, नयन, नेत्र, चक्षु, दृग, विलोचन, दृष्टि, अक्षि, दीदा, चख और अपने कृत्यों की अदाओं-अदावतों के साथ आँखें हर युग में कवियों को अपनी ओर आकर्षित करती रही हैं। नज़र, निगाह और दृष्टि के अभिप्राय में उनकी व्याप्ति और विराट हो उठती है।


आँख वाले प्रायः इस तरह सोचते हैं कि अंधों की, विशेषतः बहरे-अंधों की दुनिया, उनके सूर्य प्रकाश से चमचमाते और हँसते-खेलते संसार से बिलकुल अलग हैं और उनकी भावनाएँ और संवेदनाएँ भी बिलकुल अलग हैं और उनकी चेतना पर उनकी इस अशक्ति और अभाव का मूलभूत प्रभाव है।

हमारी आँखें हैं, इस कारण अंधों के प्रति हमारा कुछ कर्तव्य है। हम अपनी आँखें दिन में एक बार, सप्ताह में एक बार या महीने में एक बार कुछ देर के लिए उन्हें उधार दे दें।

आँखें एक जैसी होने पर भी देखने-देखने में फ़र्क़ होता है।

पेंटिंग विचार का मौन और दृष्टि का संगीत है।

प्रकृति सिर्फ़ वह नहीं जो आँखों को नज़र आती है… आत्मा की अंदरूनी तस्वीर में भी यह मौजूद होती है।

रुचि का चमकता केंद्र वह आँख है, जो आँख के भी भीतर है।

पहली नज़र को प्रेम मानकर समर्पण कर देना भी पागलपन है।

एक ज़िंदगी किनारे की भी होती है, जो बह जाने वाले को भीगी आँखों से देखती है।

संसार भर में कहाँ है नारी के नेत्र के समान सौंदर्य सिखाने वाला अन्य लेखक?

नेत्रों से प्रेम-रोग को अभिव्यक्त करके (पृथक न होने की) याचना करने में स्त्री का स्त्रीत्व-विशेष माना जाता है। ढिढोरा पीटने वाले मेरे जैसे नेत्र जिनके हों, उनके हृदय की गुप्त बातों को समझना दूसरों के लिए कठिन नहीं है।

हे भगवान! दार्शनिक को सभी व्यक्तियों की आँखों के सामने रखी वस्तुओं को देखने की अंतर्दृष्टि प्रदान कर।


वह सोचती है कि काश किसी की आँखें दूसरों को दिखाई नहीं देतीं। काश कोई अपनी आँखों को दुनिया से छिपा पाता।

हर निर्णय मुक्ति प्रदान करता है, तब भी जब वह विनाश की ओर ले जाए। अन्यथा, क्यों इतने सारे लोग आँखें खोलकर सीधा चलते हुए अपने दुर्भाग्य में दाख़िल होते?

वे कभी इस बात पर ग़ौर नहीं करेंगे कि ये कलाकृतियाँ मुश्किल घड़ियों और बहुत नाज़ुक पलों में बनाई गईं, कि ये कलाकृतियाँ कोरी आँखों से बिताई गईं रातों का नतीजा हैं, कि इन कलाकृतियों ने मुझसे मेरे ख़ून की क़ीमत वसूली है और मेरी शिराओं को कमज़ोर किया है… हाँ, वे कभी इस बात पर ग़ौर नहीं करेंगे।

एक ज़िंदगी किनारे की भी होती है, जो बह जाने वाले को भीगी आँखों से देखती है।

जो कुछ भी आता है, वह वापस चला जाता है। निकट के खिसकते ही दूर को आँख में समाया जा सकता है।

आप जैसे ही अपनी आँखों से सौंदर्य का आनंद लेते हैं, आपका दिमाग़ आपको बताता है कि सुंदरता खोखली है और सौंदर्य ख़त्म हो जाता है।

आँखें बंद करने के बाद कुछ भी नज़र न आए ऐसा नहीं।

मन आँख से छोटा होता है।

वह मेरी आँखों के सामने गिर गया, इतना पास जितना पास यह टेबल है, जो मुझे लगभग छू रहा है।

दया से लालिमा आती है, निर्दयता से त्वरित एक ही प्रश्न, एक आँख से अनुसंधान जन्मता है, चयन से कष्टप्रद मवेशी।

मेरी अपनी आँखें मेरे लिए पर्याप्त नहीं हैं, मैं औरों की आँखों से देखूँगा।

जो लोग दोनों आँखें खोले हुए देखते हैं, लेकिन वास्तव में देख नहीं पाते, उन्हीं के कारण सारी गड़बड़ी है। वे आप भी ठगे जाते हैं और दूसरों को भी ठगने से बाज़ नहीं आते।

प्रेम की विशेष शिक्षा नेत्रों को प्रसन्न करना है।

समुद्र के समान वह प्रतिक्षण मेरे नेत्रों को क्षण-क्षण में नया-नया-सा दिखाई पड़ रहा है।

तुम्हारे इन अट्टहासों के कारण हज़ारों आँखें आँसुओं से भरी हुई हैं।

हृदय में निर्गुण ब्रह्म का ध्यान, नेत्रों के सामने सगुण रूप की सुंदर झाँकी और जीभ से सुंदर राम नाम का जप करना। यह ऐसा है मानो सोने की सुंदर डिबिया में मनोहर रत्न सुशोभित हो।

विफलता को लेकर ही इस जीवन-संगीत की मैंने रचना की है। दोनों आँखों से आँसू की बूंदें टपकती हैं। इस विशाल विश्व में केवल नयनाश्रुओं से ही मेरा सागर-तट भर गया।

वर्तमान हमें अंधा बनाए रहता है, अतीत बीच-बीच में हमारी आँखें खोलता रहता है।

अनुरक्ति की आँख से गुण दिखता है। विरक्ति की आँख से दोष दिखता है। मध्यस्थता की आँख से गुण और दोष दोनों दिखते हैं।

यह निद्रा नेत्रों पर टिकी हुई, ललाट प्रदेश से उतरकर उसी प्रकार मुझे सता रही है, जैसे अदृश्य और चंचल वृद्धावस्था मनुष्य की शक्ति को पराजित करके बढ़ती जाती है।

वे (नारी-नेत्र) ही वे पुस्तकें, कलाएँ और शिक्षापीठ हैं जो समस्त संसार को प्रकट करते हैं, रखते और पोषित करते हैं।

दुनिया में धर्मों को बारीक से देखा जाए तो पता चलेगा कि नीति के बिना धर्म टिक नहीं सकता। सच्ची नीति में धर्म का समावेश अधिकांश हो जाता है।

हम आदर्श को अपनी कमियों की आँखों से देखते हैं।

प्रेम से प्रेम करने वाली आँख का पानी जब घास पर पड़ता है तो ओस का हीरा बनकर चमकता है, जब इंसान पर ज़ुल्म देखा है तो अँगारा बन कर गिरता है, जब दर्द देखकर गिरता है तो लहू की बूंद बनकर, और जब इंसान को भूखा देखता है तो वह गेहूँ बन जाता है। और नफ़रत से प्रेम करने वाली आँखों का पानी जब घास पर पड़ता है तो घास झुलस जाती है, जब इंसान पर ज़ुल्म देखता है तो उसमें बर्फ़ की-सी बे-दिल ठंडक आ जाती है, जब दर्द देखकर गिरता है तो बंदूक़ की गोली बनकर और जब इंसान को भूखा देखता है तो वह ग़ुलामी का दस्तावेज़ बन जाता है।

प्रत्येक वृद्ध व्यक्ति के नेत्र में चिंता जागती रहती है और जहाँ चिंता रहती है वहाँ निद्रा कभी नहीं आएगी।

आनंद को दूसरों की आँखों से देखना कितना दुःखद है!

रात भर जागती हुई दो आँखों की व्याकुलता अंकित कर केवल हृदय की वार्ताओं को ही प्रकट करते हो, न कोई ध्वनि है, न कोई कथा ही।

प्रणय, प्रेम! जब सामने आते हुए नीव्र आलोक की तरह आँखों में प्रकाश-पुंज उड़ेल देता है, तब सामने की वस्तुएँ और भी स्पष्ट हो जाती हैं।

प्रायः गृहस्थ जन कन्या संबंधी बातों में अपनी पत्नियों को नेत्र मानकर कार्य करते हैं।

हे माता! जन्म के प्रथम प्रभात में ही तुम्हारी गोद में मैंने आँखें खोलीं और जीवन की अंतिम संध्या में, तुम्हारी गोद में सोकर ही आँखें बंद करूँगी।

और ऐसे भी लोग हैं जो देते हैं, लेकिन देने में कष्ट अनुभव नहीं करते, न वे उल्लास की अभिलाषा करते हैं और न पुण्य समझ कर ही कुछ देते हैं।
वे देते हैं, जिस प्रकार विजय का फूल दशों दिशाओं में अपना सौरभ लुटा देता है।
इन्हीं लोगों के हाथों द्वारा ईश्वर बोलता है और इन्हीं की आँखों में से वह पृथ्वी पर अपनी मुस्कान छिटकता है।

बदसूरती आम हिंदुस्तानी आँख को दिखाई ही नहीं देती।

मेरे नेत्र बंद होने पर चित्र बनाते हैं।

आँखें सारे शरीर का दीपक हैं।

उसके स्वरूप की सुधा ही नेत्र-नीर है।

जो कुछ मैंने अपनी इन आँखों से देखा है वह किसी को भी दिखलाई नहीं दिया और जो बोझ मैंने अपने हृदय के कारण उठाया है, वह किसी ने भी नहीं उठाया है।

नेत्र बोल सकते हैं और नेत्र समझ सकते हैं।
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