
आँख वाले प्रायः इस तरह सोचते हैं कि अंधों की, विशेषतः बहरे-अंधों की दुनिया, उनके सूर्य प्रकाश से चमचमाते और हँसते-खेलते संसार से बिलकुल अलग हैं और उनकी भावनाएँ और संवेदनाएँ भी बिलकुल अलग हैं और उनकी चेतना पर उनकी इस अशक्ति और अभाव का मूलभूत प्रभाव है।

जो कोई भी मैकियावेली को ध्यान से पढ़ता है, वह जानता है कि दूरदर्शिता इसी बात में है कि कभी किसी को धमकी न दी जाए, बिना कहे कर गुज़रा जाए; दुश्मन को पीछे हटने के लिए बाध्य तो किया जाए पर कभी, जैसाकि कहते हैं, साँप की दुम पर क़दम न रखा जाए; और अपने से नीची हैसियत के किसी भी व्यक्ति के अभिमान को चोट पहुँचाने से हमेशा बचा जाए। किसी व्यक्ति के हित को, चाहे वह उस समय कितना भी बड़ा क्यों न हो, पहुँची चोट कालांतर में क्षमा की या भुलाई जा सकती है; लेकिन अभिमान और दंभ को लगा घाव कभी भरता नहीं है, कभी भुलाया नहीं जाता। आत्मिक व्यक्तित्व भौतिक व्यक्तित्व से ज़्यादा संवेदनशील, या यूँ कहें कि ज़्यादा सजीव होता है। संक्षेप में, हम चाहे जो भी करें, हमारा आंतरिक व्यक्तित्व ही हमें शासित करता है।

वृक्ष जब बढ़ रहा होता है, वह कोमल होता है; पर उसकी मृत्यु तभी हो जाती है, जब वह सूखकर कठोर हो जाता है।

पश्चिम का कलाकार रूप (फ़ार्म) की खिड़की से देखकर वस्तु को संवेद्य बनाता है, उसका संप्रेषण करता है। भारत का कलाकार प्रतीक की खिड़की से वस्तु को नहीं, वस्तु के पार वस्तु-सत् को संवेद्य बनाता है।

फ़ोटोग्राफ़ के साथ फ़ोटो खींचने वाले का संबंध पूरा-पूरा नहीं होता है—पहाड़ देखा, कैमरा खोला, फ़ोटो खिंच गया; किंतु फ़ोटोग्राफ़र के हृदय के साथ पहाड़ का कोई संबंध ही नहीं बना।

अत्यधिक संवेदनशीलता हीन भावना की अभिव्यक्ति है।

कामकाजी दृष्टि मनुष्य के स्वार्थ के साथ दृश्य वस्तु को जोड़कर देखती है और एक भावुक की दृष्टि अधिकतर निःस्वार्थ भाव की वस्तुओं का स्पर्श करती है।

हममें ऐसे उन्मुक्त संवेदनशील संसार का निर्माण करने की ललक होनी चाहिए कि संसार का कोई भी व्यक्ति; स्वेच्छा से कर्नाटक वाला बन सके और उसी तरह कर्नाटक का कोई व्यक्ति संसार के किसी भी प्रदेश वाला बन सके।

कठोरता और बल मृत्यु के साथी हैं, कोमलता और लचीलापन अस्तित्व की ताजगी के प्रतीक हैं।

लज्जा प्रकाश ग्रहण करने में नहीं होती, अंधानुकरण में होती है। अविवेकपूर्ण ढंग से जो भी सामने पड़ गया उसे सिर-माथे चढ़ा लेना, अंध-भाव से अनुकरण करना, जातिगत हीनता का परिणाम है। जहाँ मनुष्य विवेक को ताक़ पर रखकर सब कुछ ही अंध भाव से नकल करता है, वहाँ उसका मानसिक दैन्य और सांस्कृतिक दारिद्रय प्रकट होता है, किंतु जहाँ वह सोच-समझकर ग्रहण करता है और अपनी त्रुटियों को कम करने का प्रयत्न करता है, वहाँ वह अपने जीवंत स्वभाव का परिचय देता है।

जन्म के समय मनुष्य कोमल और लचीला होता है; लेकिन जब वह मरने को होता है, वह कठोर और असंवेदनशील हो जाता है।

संवेदनशील बनो परंतु निर्मल भी। प्रेमी बनो परंतु पवित्र भी।

वह कभी विजयी नहीं हो सकता जो कठोर हो जाए ।

मेरा दावा है कि भावुक इंसान प्रेम कर ही नहीं सकता।

समाज में प्रतिदिन जो अपराधों और दुष्कर्मों की संख्याएँ बढ़ती चली जा रहीं हैं, उसका प्रधान कारण आज के युग की यही सहानुभूतिरहित, संवेदनाशून्य प्रवृत्तियाँ, विषम सामाजिक परिस्थितियाँ और सामूहिक भ्रष्टाचार ही है।
aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere