
धर्म का प्रवाह, कर्म, ज्ञान और भक्ति इन तीन धाराओं में चलता है। इन तीनों के सामंजस्य से धर्म अपनी पूर्ण सजीव दशा में रहता है। किसी एक के भी अभाव से वह विकलांग रहता है।

गोस्वामी जी की राम-भक्ति वह दिव्य वृत्ति है जिससे जीवन में शक्ति, सरसता, प्रफुल्लता, पवित्रता, सब कुछ प्राप्त हो सकती है।

सत्, चित् और आनंद-ब्रह्म के इन तीन स्वरूपों में से काव्य और भक्तिमार्ग 'आनंद' स्वरूप को लेकर चले। विचार करने पर लोक में इस आनंद की दो अवस्थाएँ पाई जाएँगी—साधनावस्था और सिद्धावस्था।

धूमधाम से क्या प्रयोजन? जिनकी हम पूजा करते हैं, उन्हें तो हृदय में स्मरण करना ही पर्याप्त है। जिस पूजा में भक्तिचंदन और प्रेमकुसुम का उपयोग किया जाए, वही पूजा जगत् में सर्वश्रेष्ठ है। आडंबर और भक्ति का क्या साथ?

गोस्वामी जी के भक्ति-क्षेत्र में शील, शक्ति और सौंदर्य तीनों की प्रतिष्ठा होने के कारण मनुष्य की सम्पूर्ण भावात्मिका प्रकृति के परिष्कार और प्रसार के लिए मैदान पड़ा हुआ है।

हृदय में निर्गुण ब्रह्म का ध्यान, नेत्रों के सामने सगुण रूप की सुंदर झाँकी और जीभ से सुंदर राम नाम का जप करना। यह ऐसा है मानो सोने की सुंदर डिबिया में मनोहर रत्न सुशोभित हो।

जब ज्ञान से आलोकित तथा कर्म के द्वारा नियंत्रित और भीमशक्ति प्राप्त प्रबल स्वभाव परमात्मा के प्रति प्रेम एवं आराधना-भाव में उन्नत होता है, तब वही भक्ति टिक पाती है तथा आत्मा को परमात्मा से सतत संबद्ध बनाए रखती है।

निरंतर उपासना का तात्पर्य है— निरंतर भजन। अर्थात् नामजप, चिंतन, ध्यान, सेवा-पूजा, भगवदाज्ञा-पालन यहाँ तक कि संपूर्ण क्रिया मात्र ही भगवान की उपासना है।

भक्ति और प्रेम से मनुष्य निःस्वार्थी बन सकता है। मनुष्य के मन में जब किसी व्यक्ति के प्रति श्रद्धा बढ़ती है तब उसी अनुपात में स्वार्थपरता घट जाती है।

आज के समाज में प्रतिभा तो बहुत है, परंतु श्रद्धा नहीं है। ज्ञान तो है परंतु व्यावहारिक बुद्धि नहीं है। आडंबरपूर्ण सभ्यता तो है, परंतु प्रेम व सहानुभूति नहीं है।

मुझमें न भगवान् का प्रेम है, न श्रवणादि भक्ति है, न वैष्णवों का योग है, न ज्ञान है, न शुभ कर्म है, और कितने आश्चर्य की बात है कि उत्तम गति भी नहीं है, फिर भी हे भगवान्! हीन अर्थ को भी उत्तम बना देने वाले आपके विषय में आबद्धमूला मेरी आशा ही मुझको प्रयत्नशील बनाए रहती है।

हे जगत्पति! मुझे न धन की कामना है, न जन की,न सुंदरी की और न कविता की। हे प्रभु! मेरी कामना तो यह है कि जन्म-जन्म में आपकी अहैतुकी भक्ति करता रहूँ।

जो सब प्राणियों से द्वेष न करने वाला, सबका मित्र, दयावान, ममतारहित, निरहंकारी, सुख और दुःख को समान मानने वाला, क्षमाशील, सदा संतुष्ट, योगी, संयमी और दृढ़निश्चयी है और जिसने अपने मन और बुद्धि का परमात्मा को अर्पण कर दिया है, वह भक्त मुझे (परमात्मा को) प्रिय है।

भक्ति-लता संतों की कृपा से ही उत्पन्न होती है। दीनता एवं दूसरों को मान देने की वृत्ति आदि शिलाओं की बाढ़ द्वारा उस लता को संतापराध रूपी हाथी से बचाकर, श्रवण-कीर्तन आदि जल से सींचते और बढ़ाते रहना चाहिए।

स्वामी का कार्य, गुरु भक्ति, पिता के आदेश का पालन, यही विष्णु की महापूजा है।

भक्ति-मार्ग का सिद्धांत है भगवान को बाहर जगत में देखना। 'मन के भीतर देखना' यह योग-मार्ग का सिद्धांत है, भक्ति मार्ग का नहीं।

हे भगवान्! आपने अपने बहुत नाम प्रकट किए हैं, जिनमें आपने अपनी सब शक्ति भर दी है और आपने उनके स्मरण के लिए कोई काल भी सीमित नहीं किए हैं। आपकी ऐसी कृपा है परंतु मेरा ऐसा दुर्भाग्य है कि इस जीवन में मुझमें कोई भक्ति नहीं है।

यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्य भाव से परमात्मा का भक्त हुआ, तो वह साधु ही मानने योग्य है। क्योंकि अब वह निश्चय वाला है। वह शीघ्र ही धर्मात्मा हो जाता है और शाश्वत शांति को प्राप्त करता है।

अहिंसा केवल बुद्धि का विषय नहीं है, यह श्रद्धा और भक्ति का विषय है। यदि आपका विश्वास अपनी आत्मा पर नहीं है, ईश्वर और प्रार्थना पर नहीं है, तो अहिंसा आपके काम आने वाली चीज़ नहीं है।

जो भक्ति मार्ग श्रद्धा के अवयव को छोड़कर केवल प्रेम को ही लेकर चलेगा, धर्म से उसका लगाव न रह जाएगा। वह एक प्रकार से अधूरा रहेगा।

जिस प्रकार स्वच्छंद समाज का स्वप्न अंग्रेज कवि शेली देखा करते थे, उसी प्रकार का यह समाज सूर ने चित्रित किया है।

भक्ति का अर्थ है भावपूर्वक अनुकरण।

प्रभु के प्रति सच्ची भक्ति की प्रतिपत्ति ही जीवन में सच्चे पद की प्राप्ति है। वेद, शास्त्र, पुराण आदि का अध्ययन ही अपने में कोई विशेष पद-प्रद नहीं हो सकता जब तक उनके सारभूत तत्त्व को आत्मसात न कर लिया जाए। धन-दौलत और धनी राजाओं आदि के साथ मैत्री भी अपने में कोई सम्मान की बात नहीं है। जप-तप आदि से प्राप्त अणिमा आदि सिद्धियों से संसार को सताने में भी कोई गौरव की बात नहीं है।

हरि कथा तो भगवान्, भक्त और नाम का त्रिवेणी-संगम है।

गया जाने से बात समाप्त नहीं होती, वहाँ जाकर चाहे तू कितना ही पिंडदान दे। बात तो तभी समाप्त होगी, जब तू खड़े-खड़े इस 'मैं' को लुटा दे।

'सत्संग' नामक देश में 'भक्ति' नाम का नगर है। उसमें जाकर 'प्रेम' की गली पूछना। विरह-ताप-रूपी पहरेदार से मिलकर महल में घुसना और सेवारूपी सीढ़ी पर चढ़कर समीप पहुँच जाना। फिर दीनता के पात्र में अपने मन की मणि को रखकर उसे भगवान् को भेंट चढ़ा देना। अहं तथा घमंड के भावों को न्योछावर कर तुम श्रीकृष्ण का वरण करना।

तिलक और माला धारण कर लेने मात्र से हृदय में भक्तिभाव नहीं जाग जाता है। यदि कोई प्रेम के बिना कोरा उपदेश देता है तो वह व्यर्थ ही भौंकता है—अनुभव के बिना बोलना निरुपयोगी है।

गँवारों की धर्मं-पिपासा इंट-पत्थर पूजने से शांत हो जाती है, भद्रजनों की भक्ति सिद्ध पुरुषों की सेवा से।

हे मूढ़मति! तू कौन है? मैं कौन हूँ? मैं कहाँ से आया? मेरी माता कौन है? मेरा पिता कौन है? ऐसा विचार कर इस असार व स्वप्न सदृश विश्व को त्यागकर निरंतर भगवान की उपासना कर।

धन जोड़कर भक्ति का दिखावा करने से कोई लाभ नहीं क्योंकि ऐसा करने से मन में वासना और भी बढ़ती जाएगी। जिनका चित्त वासनाओं में फँसा हुआ है, उन्हें अंतरात्मा के दर्शन कैसे हो सकते हैं?

भारतीय संगीत के इतिहास में भक्ति के आने के साथ भजन और कीर्तन से एक नए संगीत की शुरुआत हुई।

जो ग्राम-समुदाय था, जो गाँव था—वह अपने-आपमें स्वतः सम्पूर्ण हुआ करता था। समाज धर्म द्वारा अनुशासित होता था और धर्म एक आचार-संहिता का नाम था, जिसमें कुछ नियम स्थानीय थे और कुछ सार्वदेशिक।

भक्ति, धर्म और ज्ञान दोनों की रसात्मक अनुभूति है।

मैंने 'बाइबिल' को समझने का प्रयत्न किया है। मैं उसे अपने धर्मशास्त्र में गिनता हूँ। मेरे हृदय पर जितना अधिकार 'भगवद्गीता' का है, उतना ही अधिकार 'सरमन आन द माउंट' का भी है। ‘लीड काइंडली लाइट' तथा अन्य अनेक प्रेरणा-स्फूर्त्त प्रार्थना-गीत मैं किसी ईसाईधर्मावलंबी से कम भक्ति के साथ नहीं गाता हूँ।

जब तक भोग और मोक्ष की वासना रूपिणी पिशाची हृदय में बसती है, तब तक उसमें भक्ति-रस का आविर्भाव कैसे हो सकता है।

राम-भक्ति अपने में एक साम्राज्य के समान है। जो इस साम्राज्य के अधिकारी होते हैं, उनके दर्शन मात्र से ब्रह्मानंद की प्राप्ति हो जाती है। परोक्ष रूप से प्राप्त आनंद ही इतना लोकोत्तर है, तो फिर उसकी प्रत्यक्ष अनुभूति कैसी होती है, इसका वर्णन करना मेरे लिए संभव नहीं है। उसे केवल अनुभव से जाना जा सकता है। कोलाहल से भरा हुआ यह संसार, ये तीनों लोक, ईश्वर की लीला के परिणाम मात्र हैं। इस मायामय संसार का सनातन सत्य केवल राम-भक्ति में पाया जा सकता है।

भक्ति का मूल अर्थ ही है डूब जाना, डुबा देना—भगवान में और भगवानमयी विश्व में। यह डूबने वाला जो भाव है, एक नया पोयटिक्स है। इस नये पोयटिक्स का निर्माण भक्तों ने किया, जिसका एक रूप ऐन्द्रियता है।

जो लोग कृष्ण-कृष्ण कहते हैं वह उसके पुजारी नहीं हैं। जो उसका काम करते हैं, वे ही पुजारी हैं। रोटी-रोटी कहने से पेट नहीं भरता, रोटी खाने से भरता है।

भक्ति और कर्म तब तक पूर्ण व टिकाऊ नहीं हो सकते, जब तक वे ज्ञान पर आधारित न हों।

अपने स्वरूप के अनुसंधान को ही 'भक्ति' कहते हैं।

श्रद्धा और प्रेम के योग का नाम भक्ति है।

उग्र तप, ज्ञान, गुण विकास, यज्ञ, योग, दान, पुण्य आदि सबका प्रयोजन ही क्या है जब तक सब जगत् के निज आत्मा, मोक्ष-सुख देने वाले इष्ट देव कृष्ण के चरणों में भक्ति नहीं?

धर्म की रसात्मक अनुभूति का नाम भक्ति है।

सब देवता उन सनातन भगवान की उपासना करते हैं, उन्हीं के प्रकाश से सूर्य प्रकाशित होते हैं और योगी जन उन्हीं का साक्षात्कार करते हैं।


किसी उच्चादर्श में कुछ आस्था होना- अपने जीवन को सार्थक करने और हमें बाँधे रखने के लिए आवश्यक है।

सच्चाई तो यह है कि भक्ति एक तरह से कविता में भाषा का नृत्य है। यह एक उन्माद है। चैतन्य महाप्रभु का सम्बन्ध साक्षात् रूप से उसके साथ जुड़ा हुआ है। वह भक्ति के आवेश में नाचने लगते थे।
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भक्ति महारस है और यह 'नाट्यशास्त्र' के विभिन्न रसों में से एक है। वह रस ऑब्जेक्टिव निर्वैयक्तिक हो सकता है। कालिदास ने कहा है कि यह भावयिक रस है। इसमें भक्ति के अनुभव पर ज़ोर है। भाव पर है। 'भक्ति-भाव' शब्द का प्रयोग आम तौर पर व्यवहार में होता है।
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भक्ति तब तक पूर्णत: चरितार्थ नहीं होती, जब तक वह कर्म और ज्ञान नहीं बन जाती।

आर्यों के समय में चाहे जिस प्रकार के स्थापत्य रहे हों लेकिन गुप्तों के बाद इस भक्ति भावना का विकास हुआ, वह भी नये कला-रूपों में।
aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
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