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भास

भास की संपूर्ण रचनाएँ

उद्धरण 31

अंधकार मानो अंगों पर लेप कर रहा है। आकाश मानो अंजन बरसा रहा है। इस समय दृष्टि ऐसी निष्फल हो रही है जैसे दुष्ट पुरुषों की सेवा।

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मेरी बुद्धि धर्म और स्नेह के बीच में पड़कर झूल रही है।

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अपराधी की पूजा तो केवल वध है।

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मधुर पदार्थ भी अधिक खा लेने पर अजीर्ण कर देता है।

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यज्ञ, विवाह, संकट और वन में स्त्रियों का देखना है |

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