रोग पर उद्धरण
रोग-पीड़ा-मृत्यु मानव
के स्थायी विषाद के कारण रहे हैं और काव्य में अभिव्यक्ति पाते रहे हैं। इस चयन में रोग के विषय पर अभिव्यक्त कविताओं का संकलन किया गया है।

नेत्रों से प्रेम-रोग को अभिव्यक्त करके (पृथक न होने की) याचना करने में स्त्री का स्त्रीत्व-विशेष माना जाता है। ढिढोरा पीटने वाले मेरे जैसे नेत्र जिनके हों, उनके हृदय की गुप्त बातों को समझना दूसरों के लिए कठिन नहीं है।

वह सब कुछ जो आज मेरे पास है, डर और बीमारी के बग़ैर मैं उस सबमें निपुणता हासिल नहीं कर सकता था।

बीमारी, दीवानगी और तबाही फ़रिश्तों की तरह मेरे पालने को घेरे रहते थे और जिन्होंने ज़िंदगी भर मेरा पीछा किया।

चिंता और बीमारी के बग़ैर मैं बिना पतवार वाली कश्ती की तरह होता।

रोगों के आगार शरीर में किरायेदार के समान उपस्थित प्राण के लिए, मानो अभी तक कोई शाश्वत स्थान ही प्राप्त नहीं हुआ।

पुरुष जब बिस्तर में बेकार हो जाए, बेरोज़गार हो जाए, बीमार हो जाए तो पत्नी को सारे सच्चे-झूठे झगड़े याद आने लगते हैं। तब वह आततायी बन जाती है। उसके सर्पीले दाँत बाहर निकल आते हैं।

बुढ़ापा, रोग और मृत्यु इस संसार का महाभय है। ऐसा कोई देश नहीं है जहाँ लोगों को यह भय नहीं होता हो।


बुख़ार की दुनिया भी बहुत अजीब है। वह यथार्थ से शुरू होती है और सीधे स्वप्न में चली जाती है।

शरीर के महत्त्व को, अपने देश के महत्त्व को समझने के लिए बीमार होना बेहद ज़रूरी बात है।

आसक्तियाँ और रोग—ये दोनों वस्तुएँ आदमी को पराक्रमी और स्वाधीन करती हैं।

रोग, अप्रिय घटनाओं की प्राप्ति, अधिक परिश्रम तथा प्रिय वस्तुओं का वियोग—इन चार कारणों से शारीरिक दुःख प्राप्त होता है।

सोचते रहो। उदास रहो और बीमार बने रहो।

बीमारी और बुढ़ापा—एक भयानक जोड़ा।
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ज़रा से जीर्ण रूपों को, रोग से क्षीण शरीरों को और काल से ग्रस्त आयु को देखकर किसे अभिमान हो सकता है!
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अधिकार, विनाशकारी प्लेग के सदृश, जिसे छूता है उसे ही भ्रष्ट कर देता है।
aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere