समुद्र पर उद्धरण
पृथ्वी के तीन-चौथाई
हिस्से में विशाल जलराशि के रूप में व्याप्त समुद्र प्राचीन समय से ही मानवीय जिज्ञासा और आकर्षण का विषय रहा है, जहाँ सभ्यताओं ने उसे देवत्व तक सौंपा है। इस चयन में समुद्र के विषय पर लिखी कविताओं का संकलन किया गया है।

मानव-हृदय की तरह, रेगिस्तान सागर बन जाता है और सागर रेगिस्तान बन जाता है।

समुद्र विशाल एवं अखंड है। जो ऊपर नहीं दिखता, वह भीतर है।

लेखक को जीवन में भी समुद्र की तरह उतरना होगा, लेकिन केवल नाभि तक।

धर्माचरण द्वारा हल्के बने हुए पुरुष संसार सागर में जल में पड़ी नौका के समान तैरते रहते हैं, किंतु पाप से भारी बने हुए व्यक्ति पानी में फेंके गए शस्त्र की भाँति डूब जाते हैं।

समुद्र हमारी नज़रों में सिर्फ़ इस वजह से कम सुंदर नहीं हो जाता है, क्योंकि हम जानते हैं कि यह कभी-कभी जहाज़ों को तबाह कर देता है।

वह प्रेम करते समय समुद्र से भी अधिक गहरी और गंभीर हो जाती है और निराश होने पर आग की लपट से भी अधिक भयानक।

समुद्र के समान वह प्रतिक्षण मेरे नेत्रों को क्षण-क्षण में नया-नया-सा दिखाई पड़ रहा है।

विफलता को लेकर ही इस जीवन-संगीत की मैंने रचना की है। दोनों आँखों से आँसू की बूंदें टपकती हैं। इस विशाल विश्व में केवल नयनाश्रुओं से ही मेरा सागर-तट भर गया।

उत्कृष्ट शिष्य को दी गई शिक्षक की कला अधिक गुणवती है जैसे मेघ का जल समुद्र की सीपी में पड़ने पर मोती बन जाता है।

जो सागर में जाते हैं, उन्होंने मोती जमा किए हैं। जो छिछले पानी वाले किनारे अपनाते हैं, उनके भाग्य में शंख और सीप होते हैं।

मानव की लालसाएँ समुद्र की रेत की तरह अनगिनत हैं।

लहर की बनावट, उसकी ऊँचाई, गहराई, लंबाई स्वयं उस पर निर्भर नहीं; इन सबका उत्तरदायित्व सागर की गति पर है।


जिसका जन्म याचकों की कामना पूर्ण करने के लिए नहीं होता, उससे ही यह पृथ्वी भारवती हो जाती है, वृक्षों, पर्वतों तथा समुद्रों के भार से नहीं।
aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere