देह पर उद्धरण

देह, शरीर, तन या काया

जीव के समस्त अंगों की समष्टि है। शास्त्रों में देह को एक साधन की तरह देखा गया है, जिसे आत्मा के बराबर महत्त्व दिया गया है। आधुनिक विचारधाराओं, दासता-विरोधी मुहिमों, स्त्रीवादी आंदोलनों, दैहिक स्वतंत्रता की आवधारणा, कविता में स्वानुभूति के महत्त्व आदि के प्रसार के साथ देह अभिव्यक्ति के एक प्रमुख विषय के रूप में सामने है। इस चयन में प्रस्तुत है—देह के अवलंब से कही गई कविताओं का एक संकलन।

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मुझे लगता है कि व्यक्ति ईश्वर से आता है और ईश्वर के पास वापस जाता है, क्योंकि शरीर की कल्पना की जाती है और जन्म होता है, यह बढ़ता है और घटता है, यह मर जाता है और ग़ायब हो जाता है; लेकिन जीवात्मा शरीर और आत्मा का मेल है, जिस तरह एक अच्छी तस्वीर में आकार और विचार का अदृश्य संगम होता है।

यून फ़ुस्से
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शरीर अंततः अवास्तविक है।

रघुवीर चौधरी
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शरीर कोई चीज़ नहीं, बल्कि एक स्थिति है : यह दुनिया पर हमारी पकड़ है और हमारी योजना की रूपरेखा है।

सिमोन द बोउवार
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हे मेरे शरीर, मुझे ऐसा आदमी बनाओ जो हमेशा सवाल करता रहे!

फ्रांत्ज़ फ़ैनन
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मेरी देह को भय होगा, मुझे नहीं।

होर्खे लुई बोर्खेस
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शरीर अंततः अवास्तविक है।

रघुनाथ चौधरी
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वही शरीर है, वही रूप है, वही हृदय है; पर छिन गया अधिकार और मनुष्य का मान-दंड ऐश्वर्य। अब तुलना में सबसे छोटी हूँ। जीवन लज्जा की रंगभूमि बन रहा है।

जयशंकर प्रसाद
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शरीर के महत्व को, अपने देश के महत्व को समझने के लिए बीमार होना बेहद ज़रूरी बात है।

राजकमल चौधरी
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भगवती महामाया का निद्रा-रूप बड़ा शामक होता है। वह शरीर और मन की थकान पर सुधालेप करता है। वह जीवनी शक्ति को सहलावा देता है और प्राणों को नए सिरे से ताज़गी देता है।

हजारीप्रसाद द्विवेदी
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खाओ, पिओ, जागो, बैठो अथवा खड़े रहे, पर दिन में एक बार भी यह सोच लो कि इस शरीर का नाश निश्चय है।

अप्पय दीक्षित
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इस सुंदरी का शरीर मनोहर है, वाणी रम्य है तथा चरण-निक्षेप अलौकिक है।

बाणभट्ट
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मैं जन्म लेता हूँ, बड़ा होता हूँ, नष्ट होता हूँ। प्रकृति से उत्पन्न सभी धर्म देह के कहे जाते हैं। कर्तृत्व आदि अहंकार के होते हैं। चिन्मय आत्मा के नहीं। मैं स्वयं शिव हूँ।

आदि शंकराचार्य
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रोगों के आगार शरीर में किरायेदार के समान उपस्थित प्राण के लिए, मानो अभी तक कोई शाश्वत स्थान ही प्राप्त नहीं हुआ।

तिरुवल्लुवर
  • संबंधित विषय : रोग
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और न्याय-प्रिय न्यायाधीशों!

तुम उसे क्या सज़ा दोगे जो शरीर से ईमानदार है लेकिन मन से चोर है?

और तुम उस व्यक्ति को क्या दंड दोगे जो देह की हत्या करता है लेकिन जिसकी अपनी आत्मा का हनन किया गया है?

और उस पर तुम मुक़दमा कैसे चलाओगे जो आचरण में धोखेबाज़ और ज़ालिम है लेकिन जो ख़ुद सत्रस्त और अत्याचार-पीड़ित है?

और क्या उन्हें कैसे सज़ा दोगे जिनको पश्चात्ताप पहले ही उनके दुष्कृत्यों से अधिक है?

और क्या यह पश्चात्ताप ही उस क़ानून का दिया हुआ न्याय नहीं जिसका पालन करने का प्रयास तुम भी करते रहते हो?

खलील जिब्रान
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तुम अपनी पत्नी की आबरू की रक्षा करना, और उसके मालिक मत बन बैठना, उसके सच्चे मित्र बनना। तुम उसका शरीर और आत्मा वैसे ही पवित्र मानना, जैसे कि वह तुम्हारा मानेगी।

महात्मा गांधी
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मैं शरीर में रहकर भी शरीर-मुक्त, और समाज में रहकर भी समाज-मुक्त हूँ।

राजकमल चौधरी
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एक रंग होता है नीला और एक वह जो तेरी देह पर नीला होता है।

रघुवीर सहाय
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दुर्बलतम शरीरों में अहंकार प्रबलतम होता है।

विलियम शेक्सपियर
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यह शरीर मिट्टी का बना हुआ है, मिट्टी के पुतले की तरह टूट जाने वाला है। लाठियों से सिर के टुकड़े हो जाएँगे, मगर दिल के टुकड़े नहीं होंगे। आत्मा को गाली या लाठी नहीं मार सकती। दिल के भीतर की असली चीज़ को— आत्मा को कोई हथियार नहीं छू सकता।

सरदार वल्लभ भाई पटेल
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शक्ति भय के अभाव में रहती है, कि माँस या पुट्ठों के गुणों में, जो कि हमारे शरीर में होते हैं।

महात्मा गांधी
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हे मूढ़! व्रतधारण और साज-सज्जा कर्तव्य कर्म नहीं है। ही मात्र काया की रक्षा कर्तव्य कर्म है। भोले मानव! देह की सार-संभाल ही कर्तव्य कर्म नहीं। सहज विचार (आत्म-तत्त्वचिंतन) वास्तविक उपदेश है।

लल्लेश्वरी
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प्रकृति में विषमता तो स्पष्ट है। नियंत्रण के द्वारा उसमें व्यावहारिक समता का विकास होगा। भारतीय आत्मवाद की मानसिक समता ही उसे स्थायी बना सकेगी। यात्रिंक सभ्यता पुरानी होते ही ढीली होकर बेकार हो जाएगी। उसमें प्राण बनाए रखने के लिए व्यावहारिक समता के ढाँचे या शरीर में, भारतीय आत्मिक साम्य की आवश्यकता कब मानव समाज समझ लेगा, यही विचारने की बात है। मैं मानता हूँ कि पश्चिम एक शरीर तैयार कर रहा है किंतु उसमें प्राण देना पूर्व के अध्यात्मवादियों का काम है। यही पूर्व और पश्चिम का वास्विक संगम होगा।

जयशंकर प्रसाद
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हे अर्जुन! यह आत्मा सबके शरीर में सदा ही अवध्य है।

वेदव्यास
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हमें शरीर के चिकित्सक की बजाए आत्मा के चिकित्सकों की आवश्यकता है।

महात्मा गांधी
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ब्रह्मचर्य से हम जितना अधिक तप, तेज, विद्युत और ओज का भंडार बढ़ा सकेंगे, उतना ही हम स्वयं को शरीर, हृदय, मन और आत्मा के कार्यों के लिए चरम शक्ति से भर लेंगे।

श्री अरविंद
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अपने माँस की वृद्धि के लिए दूसरे प्राणी के शरीर का भक्षण करने वाला दयावान कैसे हो सकता है?

तिरुवल्लुवर
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हीन अंग वाले, अधिक अंग वाले, विद्याहीन, निंदित रूपहीन, धनहीन तथा बलहीन मनुष्यों पर आक्षेप नहीं करना चाहिए।

वेदव्यास
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क्योंकि दो शरीर, नग्न और गुथे हुए, समय को पार कर जाते हैं, और वे अजेय हो जाते हैं।

ओक्ताविओ पाज़
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मुझे लोभ रूपी सर्प ने डस लिया है और स्वार्थ रूपी संपत्ति से मेरे पैर भारी हो गए हैं। आशा रूपी तरंगों ने मेरे शरीर को तपा डाला है। और गुरुकृपा से संतोषरूपी वायु शीतलता प्रदान कर रहा है। मुझे विषयरूप नीम मीठा लगता है और भजनरूपी मधुर गुड़ कड़वा लग रहा है।

संत एकनाथ
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सुख की अवस्था से जो दरिद्रता की दशा को प्राप्त होता है, वह तो शरीर से जीवित रहते हुए भी मृतक के समान ही जीता रहता है।

भास
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शरीर के महत्त्व को, अपने देश के महत्त्व को समझने के लिए बीमार होना बेहद ज़रूरी बात है।

राजकमल चौधरी
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आँखें सारे शरीर का दीपक हैं।

महात्मा गांधी
  • संबंधित विषय : आँख
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वर्तमान ही मेरे शरीर का एकमात्र प्रवेश-द्वार है।

राजकमल चौधरी
  • संबंधित विषय : समय
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जिन्होंने अपनी देह को देशसेवा में ही जीर्ण कर दिया, वे देहपात होने पर जन-मन से विस्मृत नहीं हो सकते, कभी नहीं मर सकते।

महात्मा गांधी
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राजन्! जिसके पास धन की कमी है, गौएँ और सेवक कम हैं तथा जिसके यहाँ अतिथियों का आना-जाना भी बहुत कम हो गया है, वास्तव में वही कृश (दुर्बल) कहलाने योग्य है और जो केवल शरीर से कृश है, वह कृश नहीं है।

वेदव्यास
  • संबंधित विषय : धन
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प्यार के दिनों में हम शरीर से सुगंध में बदल जाते हैं।

स्वदेश दीपक
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भोगते हुए व्यक्ति की देह ही जिह्वा होती है।

श्रीनरेश मेहता
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वह इसीलिए ‘नहीं है’, क्योंकि इंद्रिय-गम्य नहीं है।

श्रीनरेश मेहता
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इंद्रियाँ सीमा को ही देख-सुन-कह या अनुभव कर सकती हैं।

श्रीनरेश मेहता
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उसका कपोल जीर्ण दिवसों का मानचित्र है।

विलियम शेक्सपियर

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere