विस्थापन पर उद्धरण
अपनी जगहों को छोड़कर
दूसरी जगहों पर मजबूरन, जबरन या आदतन जाना युगों से मानवीय जीवन का हिस्सा रहा है; लेकिन निर्वासन या विस्थापन आधुनिक समय की सबसे बड़ी सचाइयों में से एक है। यह चयन उन कविताओं का है जिन्होंने निर्वासन या विस्थापन को अपने विषय के रूप में चुना है।
रामगिरि से हिमालय तक, प्राचीन भारतवर्ष के जिस विशाल खंड के मध्य से 'मेघदूत' के मंदाक्रांता छंद में जीवन स्त्रोत प्रवाहित हुआ है, वहाँ से केवल वर्षाकाल नहीं—चिरकाल की भाँति हम भी निर्वासित हो गए हैं।
प्रत्येक भारतीय, जो अपना घर छोड़कर बाहर निकलता है—भाषा के मामले में पत्थर हो जाता है। इतनी तरह की बोलियाँ उसके कानों में पड़ती हैं कि बाद में हारकर वह सोचना ही छोड़ देता है कि यह नेपाली है या गुजराती।
किसान का शहर की ओर भागना उसकी असफलता का ढिंढोरा है। ऐसा करके वह घर का रहेगा न घाट का।
aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere