
आदमी फ़िल्मी अभिनेता हो या नेता, तभी वह इच्छा-मात्र से रो सकता है।
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साहित्यकार के प्रति स्वाभाविक सहानुभूति होने के बावजूद, मुझे उसकी ग़रीबी का अनावश्यक गरिमा-मंडन अप्रिय लगता रहा है।

आज के भावुकतापूर्ण कथाकारों ने न जाने किससे सीखकर बार-बार कहा है कि दुःख मनुष्य को माँजता है! बात कुल इतनी नहीं है, सच तो यह है कि दुःख मनुष्य को पहले फींचता है, फिर फींचकर निचोड़ता है, फिर निचोड़कर उसके चेहरे को घुग्घू-जैसा बनाकर, उस पर दो-चार काली-सफ़ेद लकीरें खींच देता है। फिर उसे सड़क पर लंबे-लंबे डगों से टहलने ले लिए छोड़ देता है।

वहाँ एक नीम का लंबा-चौड़ा पेड़ था जो बहुत-से बुद्धिजीवियों की तरह दूर-दूर तक अपने हाथ-पाँव फैलाए रहने पर भी तने में खोखला था।
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हम बहुधा अपनी झेंप मिटाने और दूसरों की सहानुभूति प्राप्त करने के लिए कृत्रिम भावों की आड़ लिया करते हैं।

लाख निहोरा करें, कृत्रिमता से पर्व का समझौता नहीं होता।
aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere