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परंपरा पर उद्धरण

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मनुष्य ने नियम-कायदों के अनुसार; अपने सजग ज्ञान द्वारा भाषा की सृष्टि नहीं की, और उसके निर्माण की उसे आत्म-चेतना ही थी। मनुष्य की चेतना के परे ही प्रकृति, परम्परा, वातावरण, अभ्यास अनुकरण आदि के पारस्परिक संयोग से भाषा का प्रारम्भ और उसका विकास होता रहा।

विजयदान देथा
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इस देश की परंपरा रही है कि लोक और शास्त्र, लगातार संवाद करते रहे हैं।

नामवर सिंह
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जन-रागिनी और उसकी अंत:श्रद्धा जाने कितनी घटनाओं को अपनी गहराई के जादू से दैवी रूप प्रदान कर देती है, इतिहास विफल रहता है, कला समय का आघात बर्दाश्त नहीं कर पाती और साहित्य कभी-कभी पन्नों में सोया रह जाता है, किन्तु लोक-रागिनी का स्वर आँधी-पानी के बीच समय की उद्दाम-धारा के बहाव के बीच, विस्मृति के कितने अभिचारों के बीच भी शाश्वत बना रहता है और यद्यपि यह नहीं पता चलता कि किस युग से, किस घटना से और किस देश से उसका संबंध है और यह भी नहीं पता चलता कि उसके कितने संस्करण अपने-आप अनजाने कण्ठों द्वारा हो गए हैं, पर उसमें जो सत्य सत्त बनकर खिंच आता है, उसे कोई भी हवा उड़ा नहीं पाती, क्योंकि वह सत्य बहुत भारी होता है।

विद्यानिवास मिश्र
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हर नई पीढ़ी अपने पुरखों से वसीयत के रूप में 'शब्द-ज्ञान' का भंडार प्राप्त करती है और अपने नए अनुभवों द्वारा आवश्यकता पड़ने पर, उन परम्परागत शब्दों को नए अर्थों का नया बाना पहनाती रहती है।

विजयदान देथा
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जो मनीषी परम्परागत मूल्यों के विरोध में खड़े हैं, उनकी ईमानदारी पर शंका करने की कोई गुंजाइश नहीं है। मूल्यों की महिमा यह होनी चाहिए कि वे मनुष्य के भीतर मानवीय भावनाओं को जगाएँ। मनुष्य को सोचने को बाध्य करें, उसे व्याकुल और बेचैन बनायें।

रामधारी सिंह दिनकर
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परंपरा और विद्रोह, जीवन में दोनों का स्थान है। परंपरा घेरा डालकर पानी को गहरा बनाती है। विद्रोह घेरों को तोड़कर पानी को चोड़ाई में ले जाता है। परंपरा रोकती है, विद्रोह आगे बढ़ना चाहता है। इस संघर्ष के बाद जो प्रगति होती है, वही समाज की असली प्रगति है।

रामधारी सिंह दिनकर
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परंपरा सीखी नहीं जाती…

लुडविग विट्गेन्स्टाइन
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इतिहास विश्वास की नहीं, विश्लेषण की वस्तु है। इतिहास मनुष्य का अपनी परंपरा में आत्म-विश्लेषण है।

यशपाल
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भाषा, समाज और परंपरा के जरिये मनुष्य के ज्ञान में विकास होता है; उस नए ज्ञान से भौतिक जगत के नए तत्वों का अनुसंधान होता है। नए तत्वों का संपर्क फिर मनुष्य के मानस में नए ज्ञान का सर्जन करता है।

विजयदान देथा
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साहित्य और कला की हमारी पूरी परंपरा में, जीव की प्रधान कामना आनंद की अनुभूति है।

लक्ष्मीनारायण मिश्र
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हमने विलायती तालीम तक देसी परंपरा में पाई है और इसलिए हमें देखो, हम आज भी उतने ही प्राकृत हैं! हमारे इतना पढ़ लेने पर भी हमारा पेशाब पेड़ के तने पर ही उतरता है, बंद कमरे में ऊपर चढ़ जाता है।

श्रीलाल शुक्ल
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ईसा की वाणी में भारतीय चिंतन ही बोला था, यूरोप में उस वाणी की कोई परंपरा ही नहीं थी। इराक़ तक फैले हुए बौद्ध, शैव और वैष्णव चिंतनों का दर्शन ही उसकी पृष्ठभूमि में था।

रांगेय राघव
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परिवार मर्यादाओं से बनता है। परस्पर कर्त्तव्य होते हैं, अनुशासन होता है और उस नियत परंपरा में कुछ जनों की इकाई एक हित के आसपास जुटकर व्यूह में चलती है। उस इकाई के प्रति हर सदस्य अपना आत्मदान करता है, इज़्ज़त ख़ानदान की होती है। हर एक उससे लाभ लेता है और अपना त्याग देता है।

जैनेंद्र कुमार
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यह हमारी प्राचीन परंपरा है, वैसे तो हमारी हर बात प्राचीन परंपरा है, कि लोग बाहर जाते हैं और ज़रा-ज़रा सी बात पर शादी कर बैठते हैं।

श्रीलाल शुक्ल
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शब्दों के भूल जाने का अर्थ होता है संस्कारों को भूल जाना।

कुबेरनाथ राय
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अपने यहाँ की मूर्ति-कला पर और चाहे जो कुछ कहा जाए, उसके विरुद्ध कोई यह नहीं कह सकता कि हमारे देश की मूर्तियों में लिंग-भेद का कोई घपला है।

श्रीलाल शुक्ल
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आज़ादी मिलने के बाद हमने अपनी बहुत-सी सांस्कृतिक परंपराओं को फिर से खोदकर निकाला है। तभी हम हवाई जहाज़ से यूरोप जाते हैं, पर यात्रा का प्रोग्राम ज्योतिषी से बनवाते हैं; फॉरेन एक्सचेंज और इनकमटैक्स की दिक्क़तें दूर करने के लिए बाबाओं का आशीर्वाद लेते हैं, स्कॉच व्हिस्की पीकर भगंदर पालते हैं और इलाज के लिए योगाश्रमों में जाकर साँस फुलाते हैं, पेट सिकोड़ते हैं।

श्रीलाल शुक्ल
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मानवजाति के पूर्वापर सारे संस्कारों को छोड़कर कोई रूपदक्ष कुछ भी प्रस्फुटित नहीं कर सकता है, इसीलिए एकरूप, किंतु उसका इतिहास, उसकी ख़बर जगत्-भर में फैल जाती है।

अवनींद्रनाथ ठाकुर
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परंपरा को स्वीकार करने का अर्थ बंधन नहीं, अनुशासन का स्वेच्छा से वरण है।

विद्यानिवास मिश्र
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परंपरा आत्मिक जीवन को पंगु कर देने वाला और हमसे एक सदा के लिए गए गुज़रे युग में लोटने की अपेझा करने वाला कोई कड़ा और कठोर साँचा नहीं है। वह अतीत की स्मृति नहीं है, बल्कि जीवंत आत्मा का सतत आवास है। वह आत्मिक जीवन की जीवंत धारा है।

सर्वेपल्लि राधाकृष्णन
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परंपरा अपने को ही काटकर, तोड़ कर आगे बढ़ती है, इसलिए कि वह निरंतर मनुष्यों को अनुशासित रखते हुए भी स्वाधीनता के नए-नए आयामों में प्रतिष्ठित करती चलती है। परंपरा बंधन नहीं है, वह मनुष्य की मुक्ति (अपने लिए ही नहीं, सबके लिए मुक्ति) की निरंतर तलाश है।

विद्यानिवास मिश्र
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दक्षिण ने जिस कृष्ण की मूर्ति ‘श्रीमद्भागवत’ में गढ़ी और जो दक्षिण में रचा गया था—वह महाभारत के कृष्ण से अलग

नामवर सिंह
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दर्शनशास्त्र की आवश्यकता तब पड़ती है जब परंपरा में श्रद्धा हिल जाती है।

सर्वेपल्लि राधाकृष्णन
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इस देश में लम्बे समय तक वह परंपरा समाप्त नहीं हुई है, जिसे दक्षिण के एक समाजशास्त्री 'एम.एन. श्रीनिवास' ने समाजशास्त्र की भाषा में 'संस्कृताइजेशन' कहा था।

नामवर सिंह
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रूढ़िग्रस्त मूल्य केवल मुखौटे का काम देते हैं और उन्हें पहनकर आदमी अपनी जड़ता को छिपा लेता है।

रामधारी सिंह दिनकर
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पता नहीं यह परंपरा कैसी चली कि भक्त का मूर्ख होना ज़रूरी है।

हरिशंकर परसाई
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मेरे पूर्वजों से परंपरा प्राप्त मेरा पातिव्रत्य हमारे घर का रत्न है।

विलियम शेक्सपियर
  • संबंधित विषय : घर
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एक दीर्घ परम्परावाली जाति को इतिहास संस्कार से विच्छिन्न करने की हीन चेष्टा एक बड़े अमंगल का आभास देती है।

कृष्ण बिहारी मिश्र
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परंपरा की अखंडता यांत्रिक पुनरुत्पादन नहीं है अपितु यह सर्जनात्मक रूपांतरण है, सत्य के आदर्श के अधिकाधिक निकट पहुँचना है।

सर्वेपल्लि राधाकृष्णन
  • संबंधित विषय : सच
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जब हम एक ट्रेंड का पालन करते हैं, तो हम मूल रूप से वह कॉपी कर रहे होते हैं जो किसी और ने पहले ही किया हैं।

अशदीन डॉक्टर
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पूर्वजों द्वारा संचित धन जिस क़ानून से हमारा हो जाता है, उस तरह से शिल्प पर हमारा अधिकार नहीं होता है, क्योंकि कला होती है, ‘नियतिकृत नियम रहिता’—विधाता के नियमों में भी वह नहीं आना चाहता है।

अवनींद्रनाथ ठाकुर
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यह सही है कि प्राचीन युग की बहुत-सी रचनाएँ ऐसी भी होंगी, जो अपने लिए लिखी गई होंगी अर्थात् उसके लिखने से अपनी पूजा हुई होगी, आगे आनेवाली पीढ़ी के लिए निजी भोग से कुछ बचा रहा होगा; पर इसका अर्थ यह नहीं है कि उस युग की समस्त देन को बुहारु लगाकर बेतवा की धार में विसर्जित कर दिया जाए, क्योंकि उस युग की नाड़ी की धड़कन यदि कहीं मिल सकती है, तो इन्हीं रद्दी की टोकरियों में।

विद्यानिवास मिश्र
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जिस सामंत शब्द के साथ लगी हुई प्रत्येक परंपरा का आज हम चुटकी उड़ाते-उड़ाते महज़ एक फ़्यूडल नाम देकर तिरस्कार कर देते हैं, उसका भी कृतित्व मनुष्य की ऊँची से ऊँची आकाँक्षा को स्पर्श करने वाला है। यह समय के आघात से बचे हुए इन पुरावशेषों में स्पष्ट प्रतिभासित हो जाता है।

विद्यानिवास मिश्र

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

हिन्दवी उत्सव, 27 जुलाई 2025, सीरी फ़ोर्ट ऑडिटोरियम, नई दिल्ली

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