गाँव पर उद्धरण
महात्मा गांधी ने कहा
था कि भारत की आत्मा गाँवों में बसती है। आधुनिक जीवन की आपाधापी में कविता के लिए गाँव एक नॉस्टेल्जिया की तरह उभरता है जिसने अब भी हमारे सुकून की उन चीज़ों को सहेज रखा है जिन्हें हम खोते जा रहे हैं।

आप अपना गाँव छोड़िए, हज़ारों गाँव स्वागत के लिए तत्पर मिलेंगे। एक मित्र और बंधु की जगह हज़ारों बंधुबांधव आपके आने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। आप एकाकी नहीं हैं।

प्रतिभाएँ, साधारणतया, गाँवों में जन्म लेती हैं, महानगरों में आकर विकास पाती हैं और एक पीढ़ी के बाद फिर नष्ट हो जाती हैं, क्योंकि जाति की असली ऊर्जा का निवास महानगरों में नहीं होता। महानगर वह स्थान है जहाँ शक्ति और प्रतिभा की दुकान चलाई जाती है, ये शक्तियाँ वहाँ पैदा नहीं होतीं।

अशुभ है गँवई पहचान को मारकर गाँवों की शोभा बढ़ाना, संवेदना से छूँछ होकर समृद्धि का दंभ ढ़ोना।

जिस गाँव में गुण-अवगुण को सुनने व समझने वाला कोई नहीं है और जहाँ अराजकता फैली हुई है, हे राजिया! वहाँ रहना कठिन है।

गाँव से भागती अन्नपूर्णा और मनीषा की रक्षा के लिए श्रीकृष्ण के चरित्र का आह्वान जरूरी है।

गाँव के गँवईपन में भी एक तरह की शोभन सभ्यता है यह शहरी गँवई बहुत कुत्सित है।

गाँव की बिरहिनियों के लिए पत्र पत्र नहीं, जो पढ़कर फेंक दिया जाता है, अपने प्यारे परदेसी के प्राण हैं, देह से मूल्यवान। उनमें देह की कठोरता नहीं, कलुषता नहीं, आत्मा की आकुलता और अनुराग हैं।

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere