आसक्ति पर उद्धरण

जो मोहवश अपने हित की बात नहीं मानता है, वह दीर्घसूत्री मनुष्य अपने स्वार्थ से भ्रष्ट होकर केवल पश्चाताप का भागी होता है।

हे अर्जुन! मैं बलवानों का आसक्ति और कामनाओं से रहित बल हूँ और सब प्राणियों में धर्म के अनुकूल 'काम' हूँ।

जब तक भोग और मोक्ष की वासना रूपिणी पिशाची हृदय में बसती है, तब तक उसमें भक्ति-रस का आविर्भाव कैसे हो सकता है।

योगी (कर्मयोगी) आसक्ति को त्याग कर अंतःकरण की शुद्धि के लिए कर्म करते हैं।

प्रेम प्रतिदान नहीं चाहता, मोह प्रतिदान चाहता है।


विषय रूपी विष के भोग से उत्पन्न मोह ऐसा विषम होता है कि वह जड़ी-बूटी और मंत्रों से नहीं उतरता।