जहाँ कोई क़ानून नहीं होता, वहाँ अंतःकरण होता है।
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                अंतःकरण हम सबको कायर बना देता है।
                अंतःकरण प्रत्येक व्यक्ति के चरित्र का सार है।
                मनुष्य का अंतःकरण देववाणी है।
                मनुष्य की आत्मा ही राजनीति है, अर्थशास्त्र है, शिक्षा है और विज्ञान है, इसलिए अंतरात्मा को सुसंस्कृत बनाना ही सबसे अधिक आवश्यक है। यदि हम अंतरात्मा को सुशिक्षित बना लें तो राजनीति, अर्थशास्त्र, शिक्षा और विज्ञान के प्रश्न स्वयं ही हल हो जाएँगे।
                हमारे हिंदू गुणों-अवगुणों को नई दिशा में कौन मोड़ेगा? हमारी एक बाँह को लकवा मार गया है और दूसरी बाँह में रक्त बह रहा है। क्या ऐसा कोई उपाय है, जिसके द्वारा हमारी बेकार बाँह भी रक्तप्रवाह के नियम सीख सके?
                शरीर एक बदलता हुआ प्रवाह है और मन भी। उन्हें जो किनारे समझ लेते है, वे डूब जाते है।
                ख़ुशी का अनुभव करते हुए हमें उसके प्रति चेतन होने में कठिनाई होती है। जब ख़ुशी गुज़र जाती है और हम पीछे मुड़कर उसे देखते और अचानक से महसूस करते हैं—कभी-कभार आश्चर्य के साथ—कितने ख़ुश थे हम।
                सत्पुरुषों की महानता उनके अंतःकरण में होती है, न कि लोगों की प्रशंसा में।
                जीवित मनुष्य के लिए दुष्ट अंतःकरण की यंत्रणा तो नरक है।
                जहाँ अंतःकरण का राज्य प्रारंभ होता है, वहाँ मेरा राज्य समाप्त हो जाता है।
                स्वतंत्रता से भी अधिक शक्तिशाली एक और शब्द है—'अंतःकरण'।
                अंतःकरण का दंश मनुष्यों को दंशन सिखाता है।
                उस मनुष्य का किसी बात में विश्वास न करो जो हर बात में अंतःकरण वाला नहीं है।
                अंतःकरण तो कायरों द्वारा प्रयुक्त शब्दमात्र है, सर्व-प्रथम इसकी रचना शक्तिशालियों को भयभीत रखने के लिए हुई थी।
                राष्ट्र को छोड़िए, लेकिन अवचेतन को समाप्त करके कोई व्यक्ति तक होश, समझदारी और पहचान नहीं पा सकता।
                आत्मा के लिए अच्छा अंतःकरण वैसा ही है जैसा शरीर के लिए स्वास्थ्य।
                अपने वक्षस्थल में स्वर्गीय अग्नि की उस चिंगारी को सजीव रखने का प्रयत्न करो जिसे अंतःकरण कहते हैं।
                क्या तुम नहीं देखते कि तुम्हारा अंतःकरण तुम्हारे अंदर विराजमान अन्य लोग हैं, अन्य कुछ नहीं ?
                मानवीय शरीर की भाँति संस्कृति का शरीर भी जड़ और चेतन के संयोग से निर्मित होता है।
                चेतना और रूचि का फलक बड़ा होना ही चाहिए।
                मनुष्य हर विवेक से ऊपर है—एक चेतना, जो प्रकृति का नहीं बल्कि इतिहास का उत्पाद है।
                न शरीर तट है, न मन है। उन दोनों के पीछे जो चैतन्य है, साक्षी है, द्रष्टा है, वह अपरिवर्तित नित्य बोध मात्र ही वास्तविक तट है। जो अपनी नौका की उस तट से बाँधते है, वे अमृत को उपलब्ध होते है।
                अच्छा अंतःकरण सर्वोत्तम ईश्वर है।
                प्रेम और जो कुछ उससे उत्पन्न होता है, क्रांति और जो कुछ वह रचती है और स्वतंत्रता और जो कुछ उससे पैदा होता है, ये परमात्मा के तीन रूप हैं और परमात्मा सीमित और चेतन संसार का अनंत मन है।
                कवि को अपने कार्य में अंतःकरण की तीन वृत्तियों से काम लेना पड़ता है—कल्पना, वासना और बुद्धि। इनमें से बुद्धि का स्थान बहुत गौण है। कल्पना और वासनात्मक अनुभूति ही प्रधान है।
                उपवास करने से चित्त अंतर्मुख होता है, दृष्टि निर्मल होती है और देह हलकी बनी रहती है।
                धर्म का विनाश संभव है, लेकिन मनुष्य जाति की पुराण-चेतना का विनाश आज तक संभव नहीं हुआ।
                हम ध्यान द्वारा शुद्ध और सूक्ष्म हुए मन से परमात्मा के स्वरूप का अनुभव तो कर सकते हैं, किंतु वाणी द्वारा उसका वर्णन नहीं कर सकते, क्योंकि मन के द्वारा ही मानसिक विषय का ग्रहण हो सकता है और ज्ञान के द्वारा ही ज्ञेय को जाना जा सकता है।
                वह सबको शरण देने वाला है, दाता और सहायक है। अपराधों को क्षमा करने वाला है, जीविका देने वाला है और चित्त को प्रसन्न करने वाला है।
                पशुबल अस्थाई है और अध्यात्मबल या आत्मबल या चैतन्यवाद एक शाश्वत बल है।
                ईश्वर कोई बाह्य सत्य नहीं है। वह तो स्वयं के ही परिष्कार की अंतिम चेतना अवस्था है। उसे पाने का अर्थ स्वयं वही हो जाने के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।
                समाज में गीत-वाद्य, नाट्य- नृत्य का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है, ये बड़ी मनोहर और उपयोगी कलाएँ हैं। पर हैं तभी, जब इन के साथ संस्कृति का निवास-स्थान पवित्र संस्कृत अंतःकरण हो। केवल 'कला' तो 'काल' बन जाती है।
                हमारा काम तभी अंतरात्मा से प्रेरित हो सकता है जब अपने-आप में वह स्वच्छ हो, उसका हेतु स्वच्छ हो और उसका परिणाम भी स्वच्छ हो।
                मनुष्य जब इतना सचेत और जागृत हो जाता है कि आविर्भाव की संपूर्णता को चाहने लगता है, तो फिर वह साधारण सुख को सुख नहीं कहता।
                जिस प्रकार स्वयं मनुष्य की देह और उसकी चेतना को टुकड़ों में नहीं बाँटा जा सकता, उसी प्रकार मनुष्य से सम्बन्धी विज्ञान व कलाओं को भी परस्पर विच्छिन्न नहीं किया जा सकता।
                विश्वजगत में मनुष्य का जो इंद्रिय-बोधगम्य था, उसे ही समस्त देशों के, समस्त युगों के मनुष्यों की बुद्धि ने ज्ञान के योग से अपने विशेष अधिकार में ले लिया।
                मनुष्य की अचेतन क्रिया की यंत्रवत कारीगरी और यांत्रिक साधन ही आगे चलकर स्वतंत्र कलाओं में परिणत होते गए।
                बालकों व मूर्खों की तो गिनती क्या, महान लोगों की भी चित्तवृत्ति सदा एकाग्र नहीं रहती।
                जिसकी चेतना बंदी होती है, विश्व के साथ यथार्थ साहित्य-लाभ में उसकी दुर्बलता, उसकी कल्पनादृष्टि का अंधापन, उसकी बाधा बन जाती है।
                मेरे सामने जब कोई असत्य बोलता है तब मुझे उस पर क्रोध होने के बजाए स्वयं अपने ही ऊपर अधिक कोप होता हैं, क्योंकि मैं जानता हूँ कि अभी मेरे अंदर-तह में-असत्य का वास है।
                सांसारिक मोर्चे पर जब देश पराजित हो गया, तो उसके बुद्धिवादी लोग आध्यात्मिक बन गए और औसत लोग रूढ़िवादी हो गए। चोर का ख़तरा होने पर हमने अपने सांस्कृतिक दरवाज़े कसकर बंद कर दिए, बच्चों को बाहर झाँकने से मना किया और दम साधकर बैठ गए। इससे हमारी रक्षा तो हो गई। लेकिन हज़ार साल तक साँस रोके बैठने से हम बदल चुके हैं। हम वे नहीं हैं, जो हम खुले दरवाज़ों के ज़माने में थे। चोर चले गए, लेकिन हमारे दरवाज़े बंद हैं। रोशनी से हमारी आँखें चौंधियाती हैं और खुली हवा में हमें ज़ुकाम होता है।
                चेतना जब आत्मा में ही विश्रांति पा जाए, वही पूर्ण अहंभाव है।
                पशु-पक्षी का चैतन्य मुख्यतः अपनी जीविका में आबद्ध होता है। मनुष्य का चैतन्य विशेष मुक्ति का पथ तैयार करता है, विश्व में स्वयं को प्रसारित करता है—साहित्य उसी का एक विराट रास्ता है।
                राम और कृष्ण के मिथक संकल्प और संवेग के चैतन्य स्रोत हैं।
                प्रेम का अभाव भी एक मात्रा में विद्वेष का ही एक रूप है, क्योंकि प्रेम चेतना का पूर्ण रूप है।
                बस आप जानिए कि असावधान हैं; इस तथ्य के प्रति चुनावरहित रूप से सजग रहिए कि आप असावधान हैं, और हैं तो क्या हुआ? यानी इसके लिए चिंता मत कीजिए एवं असावधानी की इस अवस्था में, असावधानी के इन क्षणों में, यदि आप कुछ कर बैठें–तो उस क्रिया के प्रति सजग रहिए।
                लेखक स्वभाव से सपने देखने वाला होता है—सचेत सपने देखने वाला।
                जागृति का जो विस्मरण है वही स्वप्नसृष्टि का विस्तार है। वस्तु से विमुख जो अहंकार है वही त्रिगुणात्मक संसार है।
aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
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