
गृहस्थी के संचय में, स्वार्थ की उपासना में, तो सारी दुनिया मरती है। परोपकार के लिए मरने का सौभाग्य तो संस्कार वालों को ही प्राप्त होता है।

स्वामी का कार्य, गुरु भक्ति, पिता के आदेश का पालन, यही विष्णु की महापूजा है।

उपासना बाह्य आवरण है उस विचार-निष्ठा का, जिसमें हमें विश्वास है। जिसकी दुःख-ज्वाला में मनुष्य व्याकुल हो जाता है, उस विश्व-चिता में मंगलमय नटराज के नृत्य का अनुकरण, आनंद की भावना, महाकाल की उपासना का बाह्य स्वरूप है और साथ ही कला की, सौंदर्य की अभिवृद्धि है, जिससे हम बाह्य में, विश्व में, सौंदर्य-भावना को सजीव रख सके हैं।

निरंतर उपासना का तात्पर्य है— निरंतर भजन। अर्थात् नामजप, चिंतन, ध्यान, सेवा-पूजा, भगवदाज्ञा-पालन यहाँ तक कि संपूर्ण क्रिया मात्र ही भगवान की उपासना है।

वेद से बड़ा शास्त्र नहीं है, माता के समान गुरु नहीं है, धर्म से बड़ा लाभ नहीं है तथा उपासना से बड़ी तपस्या नहीं है।

धूमधाम से क्या प्रयोजन? जिनकी हम पूजा करते हैं, उन्हें तो हृदय में स्मरण करना ही पर्याप्त है। जिस पूजा में भक्तिचंदन और प्रेमकुसुम का उपयोग किया जाए, वही पूजा जगत् में सर्वश्रेष्ठ है। आडंबर और भक्ति का क्या साथ?

भगवान् की पूजा के लिए सबसे अच्छे पुष्प हैं—श्रद्धा, भक्ति, प्रेम, दया, मैत्री, सरलता, साधुता, समता, सत्य, क्षमा आदि दैवी गुण। स्वच्छ और पवित्र मन मंदिर में मनमोहन की स्थापना करके इन पुष्पों से उनकी पूजा करो। जो इन पुष्पों को फेंक देता है और केवल बाहरी फूलों से भगवान् को पूजना चाहता है, उसके हृदय में भगवान आते ही नहीं, फिर वह पूजा किसकी करेगा?

मनुष्य की पूजा करना हमारा काम नहीं है। पूजा आदर्श और सिद्धांत की हो सकती है।

दीन-दुखियों की सेवा ही प्रभु की पूजा है।

पूजा या प्रार्थना वाणी से नहीं, हृदय से करने की चीज़ है।

पूजा करने वाला पूजा करने में अपने उत्तम गुणों को बाहर लाता है।

गँवारों की धर्मं-पिपासा इंट-पत्थर पूजने से शांत हो जाती है, भद्रजनों की भक्ति सिद्ध पुरुषों की सेवा से।

आडंबर से पूजा करने पर मन में अहंकार पैदा होता है। धातु, पत्थर, मिट्टी की मूरत से तुझे क्या काम? तू छिपकर पूजा कर कि किसी को कानों-कान ख़बर न हो और मनोमय प्रतिमा बनाकर हृदय के पद्मासन में स्थापित कर।


अव्यक्त निर्गुण, निर्विशेष ब्रह्म उपासना के व्यवहार में सगुण ईश्वर हो जाता है। इसका तात्पर्य यह है कि उपासना जब होगी, तब व्यक्त और सगुण की ही होगी, अव्यक्त और निर्गुण की नहीं।


जैसे ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव पवित्र हैं, वैसे अपने करना, ईश्वर को सर्वव्यापक, अपने को व्याप्त जान के ईश्वर के समीप हम और हमारे समीप ईश्वर है, ऐसा निश्चय योगाभ्यास से साक्षात करना उपासना कहाती है, इसका फल ज्ञान की उन्नति आदि है।

उपासना और उपास्य बनने का प्रयत्न करो।

जो वस्तु हमसे अलग है, हमसे दूर प्रतीत होती हैं, उसकी मूर्ति मन में लाकर उसके सामीप्य का अनुभव करना ही उपासना है।

हे भवानी! मेरा बोलना-चालना आपका जप हो, मेरा शिल्प (मेरी चेष्टाएँ) आपकी उपासना से संबद्ध मुद्राओं की रचना हो, चलना आपकी प्रदक्षिणा लगाना हो, भोजन करना आपको विधिवत दी गई आहुतियाँ हों, भूमि में लेटना आपके लिए प्रणाम हो, इस प्रकार जितना भी मेरा विलास और चेष्टाएँ हैं, वे सब आत्मापर्ण की विधि से की गई आप की पूजा के पर्यायवाची हो जाए।

पूजा से तात्पर्य पूज्य जैसे बनने की क्रिया से है।
aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere