जिस तरह स्वार्थ और शिकायत से मन रोगी और धुँधला हो जाता है, उसी तरह प्रेम और उसके उल्लास से दृष्टि तीखी हो जाती है।
राजा से लेकर रंक तक सभी लोग; करारों के ख़ुद को अच्छे लगने वाले अर्थ करके, दुनिया को, ख़ुद को और भगवान को धोखा देते हैं।
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गृहस्थी के संचय में, स्वार्थ की उपासना में, तो सारी दुनिया मरती है। परोपकार के लिए मरने का सौभाग्य तो संस्कार वालों को ही प्राप्त होता है।
प्रेम यज्ञ में स्वार्थ और कामना का हवन करना होगा।
जिस तरह दानशीलता मनुष्य के दुर्गुणों को छिपा लेती है, उसी तरह कृपणता उसके सद्गुणों पर पर्दा डाल देती है।
कामकाजी दृष्टि मनुष्य के स्वार्थ के साथ दृश्य वस्तु को जोड़कर देखती है और एक भावुक की दृष्टि अधिकतर निःस्वार्थ भाव की वस्तुओं का स्पर्श करती है।
जो आदमी सच्चा कलाकार है, वह स्वार्थमय जीवन का प्रेमी नहीं हो सकता।
न्याय और निष्काम कर्मयोग हृदय का है। बुद्धि से हम निष्कामता को नहीं पहुँच सकते।
अस्तेय और अपरिग्रह में बहुत थोड़ा भेद है। जिसकी हमें आज आवश्यकता नहीं है, उसे भविष्य की चिंता से संग्रहकर रखना परिग्रह है।
भक्ति और प्रेम से मनुष्य निःस्वार्थी बन सकता है। मनुष्य के मन में जब किसी व्यक्ति के प्रति श्रद्धा बढ़ती है तब उसी अनुपात में स्वार्थपरता घट जाती है।
जो मोहवश अपने हित की बात नहीं मानता है, वह दीर्घसूत्री मनुष्य अपने स्वार्थ से भ्रष्ट होकर केवल पश्चाताप का भागी होता है।
निःसंदेह स्वार्थ भी त्याग की अपेक्षा रखता है, किंतु स्वार्थी व्यक्ति बाधित होकर ही त्याग करता है। प्रेम में त्याग स्वेच्छा से होता है, वहाँ त्याग में भी आनंद है।
सभी पुरुष स्वार्थी, क्रूर और अविवेकी हैं—और मैं चाहती हूँ कि मुझे उनमें से कोई मिल जाए।
क्षमा और उदारता वही सच्ची है, जहाँ स्वार्थ की भी बलि हो।
डर यही है कि अपनी श्रेष्ठता, पुण्य या धन के अभिमान से हमारा दान अपमानित न हो, अधर्म में परिणत न हो। इसीलिए उपनिषद् में कहा है ‘भ्रिया देयम्’—भय करते हुए दान दो।
मालिक और मज़दूर के स्वार्थ, एक-दूसरे के विरोधी हैं।
जो मनुष्य स्वार्थ-प्रधान व अहंकारी होता है, वह अन्य सब वस्तुओं का हीनतम् मूल्यांकन करता है।
'ईसप' की एक कहानी है जिसमें एक काणा हिरन है। जिस दिशा में उसकी फूटी आँख है, वहीं से बाण उस पर लगता है। वर्तमान मानव-सभ्यता का 'काणा' पक्ष है उसकी विषयलोलुपता।
जहाँ स्वार्थ की लेशमात्र भी गंध है, वहाँ पूर्ण अहिंसा संभव नहीं है।
सच्चा प्रेम त्याग से बना होता है, दिखावे का प्रेम स्वार्थ से।
अपने या अपने बाल-बच्चों के काम आने के ख़याल से जो एक चिथड़ा ही बटोरकर रखता है और दूसरे को ज़रूरत होते हुए भी इस्तेमाल नहीं करने देता, वह परिग्रही है। जो ऐसी वृत्ति से रहित है, लाख रुपए की पूँजी रखता हुआ भी, वह अपरिग्रही है।
अस्तेय और अपरिग्रह का आदर्श रखनेवाला मनुष्य, दूसरे के परिश्रम का लाचार दशा में ही उपयोग करेगा।
कंजूसी काला रंग है जिस पर दूसरा कोई रंग, चाहे कितना ही चटख क्यों न हो, नहीं चढ़ सकता।
हम सब जो पढ़े-लिखे कहलाते हैं, वे अपने परिश्रम से जितना पैदा कर सकते हैं उससे बहुत अधिक पदार्थों का उपभोग करते हैं और बेकार का संग्रह कर रखते हैं।
माता दुर्गे! तुम्हारी संतान हैं हम। हम तुम्हारे प्रसाद से, तुम्हारे प्रभाव से महत् कार्य के, महत् भाव के उपयुक्त हो जाएँ। विनाश करो क्षुद्रता का, विनाश करो स्वार्थ का, विनाश करो भय का।
हम जगत की समस्त वस्तुओं पर परमेश्वर का स्वामित्व समझें और प्राणी मात्र को उसके कर्ता-हर्तापन में रहने वाले एक विशाल कुटुंब के रूप में समझें, तो जगत में से बिल्कुल आवश्यक वस्तुओं भर के उपभोग करने का अधिकार हमें रहता है। इसपर इससे अधिक अधिकार मानना चोरी है।
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मुझे लोभ रूपी सर्प ने डस लिया है और स्वार्थ रूपी संपत्ति से मेरे पैर भारी हो गए हैं। आशा रूपी तरंगों ने मेरे शरीर को तपा डाला है। और गुरुकृपा से संतोषरूपी वायु शीतलता प्रदान कर रहा है। मुझे विषयरूप नीम मीठा लगता है और भजनरूपी मधुर गुड़ कड़वा लग रहा है।
स्वार्थी व्यक्ति सबसे अधिक ठगा हुआ है।
स्वार्थ सबकों अंधा बना देता है।
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जब गुलाब खिलता है, तब मधुमक्खियों की कमी नहीं रहती। मधु होगा तो चींटियाँ उसे खोजेंगी ही।
हमारा कर्म भी जब संकीर्ण स्वार्थ में ही चक्कर खाता रहता है, तब वही कर्म हमारे लिए भयंकर बंधन हो जाता है।
एक दिन के प्रयोजन से अधिक जो संचय नहीं करता; हमारी प्राचीन संहिताओं में उस द्विज-गृहस्थ की प्रशंसा की गई है, क्योंकि एक बार हमने संचय करना प्रारंभ किया नहीं कि फिर हम धीरे-धीरे संचय करने की मशीन हो जाते हैं, तब हमारा संचय प्रयोजन को ही बहुत दूर छोड़कर आगे चला जाता है। फिर प्रयोजन को ही वंचित और पीड़ित करता रहता है।
aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere