किसी शिल्पकार्य, संगीत और किसी अन्य विषय में प्रवीणता तब तक नहीं होती और न हो सकती है, जबतक इंद्रियों की अनेक नित्य एवं सहज क्रियाओं में कुछ बदलाव न किया जाए।
जिस प्रकार इन्द्रियों का प्राकृतिक बोध—ज्ञान नहीं—बल्कि एक भ्रान्त प्रतीति है—उसी प्रकार इंद्रियों द्वारा अनुभूत प्रत्येक आनन्द वास्तविक और सच्चा आनन्द नहीं है।
जैसे सत्य का स्थूल अर्थ वाणी और अहिंसा का स्थूल अर्थ प्राण न लेना हो गया है, वैसे ब्रह्मचर्य का भी सिर्फ़ 'कामजय'—इतना ही अर्थ लिया जाता है। कारण इसका यह है कि मनुष्य को कामजय ही अधिक-से-अधिक कठिन इंद्रियजय लगता है।
स्वप्न के समान सारहीन तथा सबके द्वारा उपभोग्य कामसुख से अपने चंचल मन को रोको, क्योंकि जैसे वायु प्रेरित अग्नि की हव्य पदार्थों से तृप्ति नहीं होती, वैसे ही लोगों को कामोपभोग से कभी तृप्ति नहीं होती।
बिना ज्ञान के इन्द्रियों की शक्ति का प्रकाश सर्वथा नगण्य है। परस्पर अविच्छिन्न सम्बन्ध होते हुए भी आज मनुष्य की वास्तविक शक्ति उसका समाज और श्रम है, न कि इन्द्रियाँ !
शारीरिक विकास को पूर्णतया हासिल करने के बाद ही मनुष्य के मानसिक जीवन की कहानी प्रारम्भ होती है। केवल मात्र ज्ञानेन्द्रियों के जरिये जब तक आदिम मनुष्य वस्तु-जगत से सम्पर्क स्थापित करता रहा, तब तक उसका जीवन पशुवत् ही रहा होगा।
रागादिक विकारों के बिना अब्रह्मचर्य अर्थात इंद्रियपरायणता नहीं हो सकती, और विकारी मनुष्य सत्य या अहिंसा का पूर्ण पालन कर नहीं सकता; यह कि आध्यात्मिक पूर्णता प्राप्त नहीं कर सकता।
इंद्रियाँ, मन और बुद्धि इस (कामभाव) के वास-स्थान कहे जाते हैं। इनके द्वारा ज्ञान को आच्छादित करके यह जीवात्मा को मोहित करता है।
विचारशील मनुष्य देख सकता है कि दूसरी इंद्रियों को पोसे बिना, काम को बहुत पोषण नहीं मिलता और दूसरी इंद्रियों को जीते बिना, कामजय की आशा रखना व्यर्थ है।
दूसरे प्राणियों की अपेक्षा मनुष्य आहार-विहार में अधिक स्वतंत्रता भोगता है और इससे वह समस्त इंद्रियों के भोगों में अधिकता करता है। परिणामस्वरूप केवल साल के किन्हीं ख़ास दिनों में ही उसे काम-वेग नहीं आता, बल्कि वह बराबर उसका पोषण करता रहता है। यों काम-विकार—इसका निरंतर का रोग बने रहने के कारण उसे जीतना इसके लिए कठिन से कठिन हो गया है।
कामभोगों से कभी तृप्ति नहीं होती, जैसे जलती अग्नि की आहुतियों से तृप्ति नहीं होती। जैसे-जैसे कामसुखों में प्रवृत्ति होती जाती है, वैसे-वैसे विषय-भोगों की इच्छा बढ़ती जाती है।
ब्रह्मचर्य का अर्थ केवल वीर्य रक्षा अथवा कामजय मात्र ही नहीं है, बल्कि इसमें सभी इंद्रियों का संयम आवश्यक है।
ब्रह्मचर्य का पालन करना हो तो स्वादेंद्रिय पर प्रभुत्व प्राप्त करना ही चाहिए।
उपन्यासों का प्रेम इंद्रियों पर भावना की वरीयता है।
ब्रह्मचर्य से मतलब है ब्रह्म अथवा परमेश्वर के मार्ग पर चलना; अर्थात् मन और इंद्रियों को परमेश्वर के मार्ग पर रखना।
यदि इंद्रिय-निग्रह दुकान हो, धैर्य सुनार बने, मनुष्य की अपनी बुद्धि अहरन हो, उस मति अहरन पर ज्ञान का हथौड़ा चोट करे। यदि अकाल-पुरख का भय धौंकनी हो, मेहनत आग हो, प्रेम कुठाली हो, तो हे भाई! उस कुठाली में अकाल-पुरख के नाम-अमृत को गलाया जाए, क्योंकि ऐसी ही सच्ची टकसाल में गुरु का शब्द गढ़ा जा सकता है। ये कार्य-व्यवहार उन्हीं मनुष्यों के ही हैं, जिन पर कृपा-दृष्टि होती है
इंद्रियों से ही हमारा सभी ज्ञान प्रारंभ होता है, फिर समझ से आगे बढ़ता है और अंततः तर्क पर समाप्त होता है। तर्क से ऊपर कुछ नहीं है।
इंद्रियाँ इतनी बलवान हैं कि उन्हें चारों तरफ से—ऊपर से और नीचे से, यों दसों दिशाओं से—घेरा जाए तो ही वे अंकुश में रहती हैं।
एक भी इंद्रिय स्वच्छंदी बन जाने से दूसरी इंद्रियों पर प्राप्त नियंत्रण ढीला पड़ जाता है। उनमें भी, ब्रह्मचर्य की दृष्टि से जीतने में सबसे कठिन और महत्त्व की स्वादेंद्रिय है। इस पर स्पष्ट रूप से ध्यान रखने के ख़याल से स्वादजय को व्रतों में ख़ास स्थान दिया गया है।
जिस क्षण मन विषयों से विरक्त हो जाता है और इंद्रियाँ अंतर्मुखी हो जाती हैं—प्रकाश झलकने लगता है।
aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere