हमारे अधिकांश उपन्यास अति सामान्य प्रश्नों (ट्रीविएलिटीज) से जूझते रहते हैं और उनसे हमारा अनुभूति-संसार किसी भी तरह समृद्ध नहीं होता।
आलोचक के लिए सर्व-प्रथम आवश्यक है—अनुभवात्मक जीवन-ज्ञान, जो निरंतर आत्म-विस्तार से अर्जित होता है।
सबसे पहली कमी तो हमारे उपन्यासों में चिंतन और वैचारिकता की ही है।
हमारे साहित्य में एक बहुचर्चित स्थापना यह है कि भारतीय उपन्यास मूलतः किसान चेतना की महागाथा है—वैसे ही जैसे उन्नसवीं सदी के योरोपीय उपन्यास को मध्यम वर्ग का महाकाव्य कहा गया था।
भारत जैसे विराट मानवीय क्षेत्र के अनुभवों, गहरी भावनाओं, आशाओं, आकांक्षाओं और यातनाओं आदि को हमारा उपन्यास अभी अंशतः ही समेट पाया है—और जितना तथा जिस प्रकार उसे समेटा गया है उसमें प्रतिभा एवं कौशल के कुछ दुर्लभ उदाहरणों को छोड़कर, अब भी बहुत अधकचरापन है।
जो लोग 'जनता का साहित्य' से यह मतलब लेते हैं कि वह साहित्य जनता के तुरंत समझ में आए, जनता उसका मर्म पा सके, यही उसकी पहली कसौटी है—वे लोग यह भूल जाते हैं कि जनता को पहले सुशिक्षित और सुसंस्कृत करना है।
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वह आलोचना, जो रचना-प्रकिया को देखे बिना की जाती है—आलोचक के अहंकार से निष्पन्न होती है। भले ही वह अहंकार आध्यात्मिक शब्दावली में प्रकट हो, चाहे कलावादी शब्दावली में, चाहे प्रगतिवादी शब्दावली में।
उपन्यास की पूरी संभावनाओं का अभी भी हमारे यहाँ दोहन होना है।
‘झूठा सच’ उन दुर्लभ कृतियों में से है जो ठोस, यथार्थवादी स्तर पर, भावुकता के सैलाब में बहे बिना इस भयानक मानवीय त्रासदी को अत्यंत सशक्त रूप में प्रस्तुत करती है।
स्वत्रंता-प्राप्ति के बाद पहला औपन्यासिक चमत्कार रेणु का ‘मैला आँचल’ है।
कवि का आभ्यंतर वास्तव-बाह्म का आभ्यंतरीकृत रूप ही है, इसीलिए कवि को अपने वास्तविक जीवन में रचना-बाह्म काव्यानुभव जीना पड़ता है।
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‘मैला आँचल’ के साथ ही हिंदी में उपन्यासों में एक नई कोटि का प्रचलन होता है, जिसे ‘आंचलिक’ कहते हैं।
अल्प-समृद्ध, दरिद्र जो आलोचक है, वह अपने को चाहे जितना बड़ा समझे; साहित्य-क्षेत्र का अनुशासक समझे—वह वस्तुतः साहित्य-विश्लेषण के अयोग्य है, कला-प्रक्रिया के कार्य में अक्षम है—भले ही वह साहित्य का 'शिखर' बनने का स्वांग रचे, मसीहा बने।
पं. रामचंद्र शुक्ल जो निर्गुण मत को कोसते हैं, वह यों ही नहीं, इसके पीछे उनकी सारी पुराण-मतवादी चेतना बोलती है।
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प्रयोगवादी कविता के संवेनात्मक उद्देश्यों को न समझने के कारण ही, उसके संबंध में बहुत-सी भ्रांतियाँ फैलाई गई।
‘कुल्ली भाट’ जैसे छोटे उपन्यास में निराला ने यथार्थ को एक साथ इतने धरातलों पर खोजा है और इतने जटिल शिल्प के साथ कि उसका निर्वाह—असाधारण प्रतिभा ही कर सकती थी, जो कि स्वयं वे थे।
किसी साहित्य का वास्तविक विश्लेषण हम तब तक नहीं कर सकते; जब तक कि हम उन गतिमान सामाजिक शक्तियों को नहीं समझते, जिन्होंने मनोवैज्ञानिक-सांस्कृतिक धरातल पर आत्मप्रकटीकरण किया है।
रचना-प्रक्रिया से अभिभूत कवि जब भावों की प्रवहमान संगति संस्थापित करता चलता है, तब उस संगति की संस्थापना में उसे भावों का संपादन यानी एडीटिंग करना पड़ता है। यदि वह इस प्रकार भावों की काट-छाँट न करे, तो मूल प्रकृति उसे संपूर्ण रूप से अपनी बाढ़ में बहा देगी और उसकी कृति विकृति में परिणत हो जाएगी।
काव्य केवल एक सीमित शिक्षा और संस्कार नहीं है, वरन एक व्यापक भावात्मक और बौद्धिक परिष्करण (कल्चर) है—वह कल्चर, वह परिष्कृति, जो वास्तविक जीवन में प्राप्ति करनी पड़ती है।
‘शेखर : एक जीवनी’ के प्रकाशन से हिंदी उपन्यास अपनी अनेक पुरानी सीमाओं को पीछे छोड़ देता है, उपन्यास विधा एक विस्तीर्ण फ़लक हासिल करती है, उसे एक मुक्ति का एहसास होता है; उपन्यास अब घटनाओं का संपुँजन भर नहीं रहा, न चरित्रों की अंतिम परिणति पर आधारित एक नीति कथा और न कोई जीवन-दृष्टि भर। वह अब जीवन का समग्र अनुभव बन गया, एक समानांतर संसार, जिसमें हम स्वयं अपनी जटिल अनुभूतियों को पहचान सकते हैं—और सरंचना की दृष्टि से वह एक साथ कथा जीवनी, चिंतन, दार्शनिक विश्लेषण, काव्य, महाकाव्य बन गया।
कंडीशंड साहित्यिक रिफ्लेक्सेज, यंत्रवत कविताएँ तैयार करवाते हैं।
अभिव्यक्ति की प्रणाली बदलते ही आलोचकों की नाड़ी छूटने लगती है।
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अगर भारतीय उपन्यास की कोई स्पष्ट पहचान करनी हो—उसकी जटिलता के बाबजूद—तो ‘मैला आँचल’ उसका सशक्त संकेतक है।
आधुनिक हिंदी उपन्यास का प्रसंग उठने पर जो सबसे पहली बात ध्यान में आती है वह यह है कि हिंदी उपन्यास के साथ ‘आधुनिक’ का विशेषण अनावश्यक है।
अनुभवी कवि आभ्यंतर भाव-संपादन का महत्व जानता है।
आलोचना को छोड़कर हर व्यवसाय सीखने में मनुष्य को अपना समय लगाना चाहिए क्योंकि आलोचक तो सब बने बनाए ही हैं।
निंदा, प्रशंसा, इच्छा, आख्यान, अर्चना, प्रत्याख्यान, उपालंभ, प्रतिषेध, प्रेरणा, सांत्वना, अभ्यवपत्ति, भर्त्सना और अनुनय इन तेरह बातों में ही पत्र से ही प्रकट होने वाले अर्थ प्रवृत्त होते हैं।
गेय काव्य (लिरिकल पोएट्री) की रचना-प्रक्रिया; उस कविता की रचना-प्रक्रिया से बिल्कुल भिन्न है, जो मन की किसी प्रतिक्रिया-मात्र का रेखांकन करती है।
भावना की तीव्र आर्द्रता और सारे दुःखों और कष्टों के परिहार के लिए ईश्वर की पुकार के पीछे जनता की भयानक दुःस्थिति छिपी हुई थी।
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‘मैला आँचल’ के अनेक आयामों में से एक यह भी है कि उसका काव्य-तत्त्व अत्यंत प्रबल है।
कवि-जीवन की प्रथम-स्तरीय उपलब्धि, उस अंतःप्रकृति से साक्षात्कार है जो अपना कुछ विशेष कहना चाहती है, जिसके पास कुछ विशेष कहने के लिए है। इस आत्म-चेतना के प्रत्यक्ष संवेदनात्मक ज्ञान के बिना कोई कवि मौलिक नहीं हो सकता।
डॉ. रामविलास शर्मा को प्रयोगवादी या नई कविता में, ‘असुंदर’ और ‘विद्रूप’ से अधिक कुछ नहीं दिखता।
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हिंदी में राजनैतिक आलोचना करने वाले अख़बार अब नहीं हैं।
छायावाद के पास और कुछ न सही तो व्यापक आध्यात्मिक विश्व-स्वप्न था, साथ ही राष्ट्रीय सांस्कृतिक प्रेरणा थी। उसके पास अपना एक दर्शन था। स्वाधीनता की प्राप्ति के अनंतर, पूँजीवाद के संपूर्ण प्रभुत्व के बाद, उसकी भावनाओं का भी दार्शनिक औचित्यीकरण था।
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छायावाद के कवि-चतुष्टय में से प्रसादजी, समाज और सभ्यता की व्याख्या करते हुए अरूप आध्यात्मिक सामरस्य्वाद की ओर निकल गए, संसारातीत, रहस्यवाद की आनंदमयी भूमि में विचरण करने लगे, महादेवीजी समाज और सभ्यता के प्रश्नों के चक्कर में ही नहीं पड़ीं, काव्य द्वारा। केवल निराला संघर्षानुभवों द्वारा आज की जनस्थिति की ओर उन्मुख हुए।
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यह धारण ग़लत है कि आत्मपरक काव्य व्यक्तिवादी काव्य है।
कल्पना और भावना, दोनों का जो मिला-जुला रूप हमें कलाकृति में दिखाई देता है, उसके माध्यम से हम उन वस्तु-सत्यों का, जीवन-स्थितियों का अनुमान कर सकते हैं कि जिनके प्रति वास्तविक जीवन में की गई संवेदनात्मक प्रतिक्रियाएँ, कवि-हृदय में संचित होकर भाव या भावना का रूप धारण कर चुकी हैं।
काव्य की रचना-प्रक्रिया के अंतर्गत तत्व-बुद्धि, भावना, कल्पना, इत्यादि एक होते हुए भी, प्रभाव-संगठक आंतरिक उद्देश्यों की भिन्नता के साथ ही रचना-प्रक्रिया भी वस्तुतः बदल जाती है।
जहाँ जीवन-तथ्यों के ठोस और प्रभावोत्पादक संदर्भों की मूर्तिमानता प्रत्यक्ष नहीं है, और जहाँ केवल वैचारिक ऊहापोह हो रहा है, वहाँ वैचारिकता काव्यरहित हो जाएगी।
भक्ति-आंदोलन का आविर्भाव, एक ऐतिहासिक-सामाजिक शक्ति के रूप में जनता के दु:खों और कष्टों से हुआ, यह निर्विवाद है।
केवल ग्रामीण स्थिति देख-भर लेने से या गाँवों के वातावरण में लेखक के रहने से सच्चे यथार्थवादी साहित्य का जन्म नहीं हो सकता, जब तक लेखक की आत्मा ग्रामीणता में स्वयं नहीं पनपती और वहाँ की क्रिया-प्रतिक्रिया से प्रवहनशील होकर साहित्य में नहीं उतरती।
सुधारवादियों की तथा आज की भी एक पीढ़ी को तुलसीदासजी के वैचारिक प्रभाव से संघर्ष करना पड़ा, यह भी एक बड़ा सत्य है।
जिस तरह सामाजिक व्यथा से जाग्रत मानवी-आत्मा यथार्थवादी हो जाती है, उसी तरह अपनी संपन्न परिस्थिति में; अपनी भावनाओं के मनोहर कोष से चेतन मानव-आत्मा, भावना-प्रधान और कल्पना-प्रधान—जिसे रोमैंटिक कहते हैं, हो जाती है।
पाठक-आलोचक के ध्यान का जो प्राथमिक केंद्र है, वह है अंतर्जगत और रचयिता के ध्यान का जो प्राथमिक केंद्र है, वह है अंतर्जगत की प्रातिनिधिक शब्दाभिव्यक्ति, कलात्मक संगति और निर्वाह।
औरों की कमज़ोरियों की तरफ़ न देखें, औरों की नुक्ता-चीनी न करें—अपनी तरफ़ देखें। अगर हर एक आदमी अपना-अपना कर्तव्य करता है, अपना-अपना फ़र्ज़ अदा करता है, तो दुनिया का काम बहुत आगे जाएगा।
भक्ति-भावना के राजनीतिक गर्भितार्थ थे। ये राजनीतिक गर्भितार्थ तत्कालीन सामंती शोषक वर्गों और उनकी विचारधार के समर्थकों के विरुद्ध थे।
हमारे पूर्ववर्ती लोगों और विदेशियों की कृतियों का आलोचनात्मक विवेचन किए बिना उन्हें अपनी कृतियों में रोप देना अथवा उनका अनुकरण करना कला-साहित्य के क्षेत्र में एक अत्यंत असृजनशील और हानिकारक कठमुल्लावाद है।
पंडित रामचंद्र शुक्ल के इस कथन में हमें पर्याप्त सत्य मालूम होता है कि भक्ति आंदोलन का एक मूल कारण जनता का कष्ट है। किंतु पंडित शुक्ल ने इन कष्टों के मुस्लिम-विरोधी और हिंदू-राजसत्ता के पक्षपाती जो अभिप्राय निकाले हैं, वे उचित नहीं मालूम होते।
भक्तिकालीन संतों के बिना महाराष्ट्रीय भावना की कल्पना नहीं की जा सकती, न सिख गुरुओं के बिना सिख जाति की।
देवकीनंदन खत्री और किशोरीलाल गोस्वामी के रहस्य-रोमांच भरे उपन्यासों में भी एक आदर्शवादिता है, जो असामाजिक मान्यताओं को बढ़ावा नहीं देती।
aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
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