हमारे अधिकांश उपन्यास अति सामान्य प्रश्नों (ट्रीविएलिटीज) से जूझते रहते हैं और उनसे हमारा अनुभूति-संसार किसी भी तरह समृद्ध नहीं होता।
आलोचक के लिए सर्व-प्रथम आवश्यक है—अनुभवात्मक जीवन-ज्ञान, जो निरंतर आत्म-विस्तार से अर्जित होता है।
शमशेर की आत्मा ने अपनी अभिव्यक्ति का एक प्रभावशाली भवन अपने हाथों तैयार किया है, उस भवन में जाने से डर लगता है—उसकी गंभीर प्रयत्नसाध्य पवित्रता के कारण।
आलोचक का धर्म साहित्यिक नेतागिरी करना नहीं है, वरन् जीवन का मर्मज्ञ बनना और उसी विशेषता की सहायता से कला-समीक्षा करना भी है।
कहना न होगा कि शिल्प की दृष्टि से शमशेर हिंदी के एक अद्वितीय कवि है।
अपने स्वयं के शिल्प का विकास केवल वही कवि कर सकता है, जिसके पास अपने निज का कोई ऐसा मौलिक-विशेष हो, जो यह चाहता हो कि उसकी अभिव्यक्ति उसी के मनस्तत्वों के आकार की, उन्हीं मनस्तत्वों के रंग की, उन्हीं के स्पर्श और गंध की ही हो।
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सबसे पहली कमी तो हमारे उपन्यासों में चिंतन और वैचारिकता की ही है।
हमारे साहित्य में एक बहुचर्चित स्थापना यह है कि भारतीय उपन्यास मूलतः किसान चेतना की महागाथा है—वैसे ही जैसे उन्नसवीं सदी के योरोपीय उपन्यास को मध्यम वर्ग का महाकाव्य कहा गया था।
भारत जैसे विराट मानवीय क्षेत्र के अनुभवों, गहरी भावनाओं, आशाओं, आकांक्षाओं और यातनाओं आदि को हमारा उपन्यास अभी अंशतः ही समेट पाया है—और जितना तथा जिस प्रकार उसे समेटा गया है उसमें प्रतिभा एवं कौशल के कुछ दुर्लभ उदाहरणों को छोड़कर, अब भी बहुत अधकचरापन है।
जो लोग 'जनता का साहित्य' से यह मतलब लेते हैं कि वह साहित्य जनता के तुरंत समझ में आए, जनता उसका मर्म पा सके, यही उसकी पहली कसौटी है—वे लोग यह भूल जाते हैं कि जनता को पहले सुशिक्षित और सुसंस्कृत करना है।
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वह आलोचना, जो रचना-प्रकिया को देखे बिना की जाती है—आलोचक के अहंकार से निष्पन्न होती है। भले ही वह अहंकार आध्यात्मिक शब्दावली में प्रकट हो, चाहे कलावादी शब्दावली में, चाहे प्रगतिवादी शब्दावली में।
शमशेर की मूल मनोवृत्ति एक इंप्रेशनिस्टिक चित्रकार की है।
उपन्यास की पूरी संभावनाओं का अभी भी हमारे यहाँ दोहन होना है।
‘झूठा सच’ उन दुर्लभ कृतियों में से है जो ठोस, यथार्थवादी स्तर पर, भावुकता के सैलाब में बहे बिना इस भयानक मानवीय त्रासदी को अत्यंत सशक्त रूप में प्रस्तुत करती है।
कवि का आभ्यंतर वास्तव-बाह्म का आभ्यंतरीकृत रूप ही है, इसीलिए कवि को अपने वास्तविक जीवन में रचना-बाह्म काव्यानुभव जीना पड़ता है।
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स्वत्रंता-प्राप्ति के बाद पहला औपन्यासिक चमत्कार रेणु का ‘मैला आँचल’ है।
‘मैला आँचल’ के साथ ही हिंदी में उपन्यासों में एक नई कोटि का प्रचलन होता है, जिसे ‘आंचलिक’ कहते हैं।
अल्प-समृद्ध, दरिद्र जो आलोचक है, वह अपने को चाहे जितना बड़ा समझे; साहित्य-क्षेत्र का अनुशासक समझे—वह वस्तुतः साहित्य-विश्लेषण के अयोग्य है, कला-प्रक्रिया के कार्य में अक्षम है—भले ही वह साहित्य का 'शिखर' बनने का स्वांग रचे, मसीहा बने।
पं. रामचंद्र शुक्ल जो निर्गुण मत को कोसते हैं, वह यों ही नहीं, इसके पीछे उनकी सारी पुराण-मतवादी चेतना बोलती है।
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प्रयोगवादी कविता के संवेनात्मक उद्देश्यों को न समझने के कारण ही, उसके संबंध में बहुत-सी भ्रांतियाँ फैलाई गई।
‘कुल्ली भाट’ जैसे छोटे उपन्यास में निराला ने यथार्थ को एक साथ इतने धरातलों पर खोजा है और इतने जटिल शिल्प के साथ कि उसका निर्वाह—असाधारण प्रतिभा ही कर सकती थी, जो कि स्वयं वे थे।
इंप्रेशनिस्टिक स्वभाव ने शमशेर को ‘विशिष्ट’ के प्रति प्रेरित किया है।
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किसी साहित्य का वास्तविक विश्लेषण हम तब तक नहीं कर सकते; जब तक कि हम उन गतिमान सामाजिक शक्तियों को नहीं समझते, जिन्होंने मनोवैज्ञानिक-सांस्कृतिक धरातल पर आत्मप्रकटीकरण किया है।
पंतजी में कोमल संवेदनाओं से आप्लुत, एक विशेष प्रकार की अंतर्मुखता थी।
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प्रणय-जीवन के सर्वोतम कवि आज भी मीरा और सूर हैं।
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वास्विकता एक फ़ार्मूला नहीं है।
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कलाकार अंतर में उत्थित उन तत्त्वों को ही प्रधानता देता है, जो उसे महत्त्वपूर्ण प्रतीत होते है। यह महत्त्व-भावना केवल सब्जैक्टिव नहीं है, यह महत्त्व-भावना उस वर्ग की मनोवैज्ञानिक स्थिति के आधार पर खड़ी हुई मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं के अनुसार बनती है।
किसी प्रवृत्ति की औचित्य-स्थापना के हेतु; जिस सौंदर्य-सिद्धांत का जन्म होता है, वह सिद्धांत उस प्रवृत्ति के ह्रास के साथ ही निर्बल हो जाता है।
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आलोचक साहित्य का दारोग़ा है।
जो लेखक तत्त्व के विकास और परिष्कार की चिंता नहीं करता, वस्तुतः वह प्रतिक्रिया के हाथों में खेलता है। यही नहीं, वह यह सोचता है कि उसकी अपनी संवेदना; जो अभिव्यक्ति चाहती है, अभिव्यक्ति की आतुरता-मात्र के कारण बहुत सिगनीफ़िकेंट है, मार्मिक है—उसका औचित्य वह अपनी आतुर उद्विग्नता में खोजता है।
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जिस प्रकार मानव-प्रसंग उलझे हुए होते हैं, उस तरह भाव भी।
प्रत्येक युग अपनी सामाजिक-ऐतिहासिक स्थिति की अनुभूत आवश्यकता के अनुसार, अपना साहित्य-निर्माण किया करता है।
वास्तविकता हमेशा, अनिवार्य रूप से अटूट नियम की भाँति उलझी हुई होती है। उसमें दिक् और काल, भूगोल और इतिहास, व्यक्ति और समाज, चरित्र और परिस्थिति, आलोचक मन और आलोचित आत्म-व्यक्तित्व—आदि-आदि घनिष्ठ रूप में बिंधे हुए होते हैं।
‘शेखर : एक जीवनी’ के प्रकाशन से हिंदी उपन्यास अपनी अनेक पुरानी सीमाओं को पीछे छोड़ देता है, उपन्यास विधा एक विस्तीर्ण फ़लक हासिल करती है, उसे एक मुक्ति का एहसास होता है; उपन्यास अब घटनाओं का संपुँजन भर नहीं रहा, न चरित्रों की अंतिम परिणति पर आधारित एक नीति कथा और न कोई जीवन-दृष्टि भर। वह अब जीवन का समग्र अनुभव बन गया, एक समानांतर संसार, जिसमें हम स्वयं अपनी जटिल अनुभूतियों को पहचान सकते हैं—और सरंचना की दृष्टि से वह एक साथ कथा जीवनी, चिंतन, दार्शनिक विश्लेषण, काव्य, महाकाव्य बन गया।
काव्य केवल एक सीमित शिक्षा और संस्कार नहीं है, वरन एक व्यापक भावात्मक और बौद्धिक परिष्करण (कल्चर) है—वह कल्चर, वह परिष्कृति, जो वास्तविक जीवन में प्राप्ति करनी पड़ती है।
बहिर्मुख कवियों के लिए रूप की समस्या विशेष नहीं होती। किंतु यदि वे जीवन-जगत् की विविध तथा विशिष्ट मार्मिकताओं के उद्घाटन और चित्रण का कार्य हाथ में लें, तो निःसंदेह ये नए तत्त्व उनकी अब तक की कमाई भाषा-संपदा और अभिव्यक्ति-शक्ति को चुनौती दे देंगे।
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जीवन के विविध क्षेत्रों का और अनेकानेक मानव-प्रसंगों का, जितना अनुभव प्रसादजी को था—उतना पंतजी को प्राप्त नहीं हो सका।
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रचना-प्रक्रिया से अभिभूत कवि जब भावों की प्रवहमान संगति संस्थापित करता चलता है, तब उस संगति की संस्थापना में उसे भावों का संपादन यानी एडीटिंग करना पड़ता है। यदि वह इस प्रकार भावों की काट-छाँट न करे, तो मूल प्रकृति उसे संपूर्ण रूप से अपनी बाढ़ में बहा देगी और उसकी कृति विकृति में परिणत हो जाएगी।
सीता की जीनवगाथा से तादात्म्य प्राप्त करने वाले भवभूति के उत्तररामचरित की करुणा, सीता को दुःख देनेवाले व्यक्ति के प्रति—कवि की मानवता का विरोध-भाव था।
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विषय की प्रेरणा-शक्ति पर काव्य की ऊँचाई-निचाई निर्भर करती है।
मनोवैज्ञानिक वस्तुवादी कवि; जब सामाजिक भावनाओं तथा विश्व-मैत्री की संवेदानाओं से आच्छन्न होकर मानचित्र प्रस्तुत करता है, तब वह उसी प्रकार अनूठा और अद्वितीय हो उठता है जैसे कि किसी क्षेत्र में भिन्न तथा अन्य कवि कदापि नहीं।
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अंतर्तत्त्व-व्यवस्था बाह्य जीवन-जगत का, अपनी वृत्तियों के अनुसार आत्मसात्कृत रूप है। किंतु यह आत्मसात्कृत जीवन-जगत—बाह्म जीवन-जगत् की प्रतिकृति नहीं है।
जिस विशेष अर्थ में पंतजी प्रकृति-सौंदर्य के कवि हैं, उस अर्थ में उदाहरणतः प्रसादजी नहीं।
अगर भारतीय उपन्यास की कोई स्पष्ट पहचान करनी हो—उसकी जटिलता के बाबजूद—तो ‘मैला आँचल’ उसका सशक्त संकेतक है।
आधुनिक हिंदी उपन्यास का प्रसंग उठने पर जो सबसे पहली बात ध्यान में आती है वह यह है कि हिंदी उपन्यास के साथ ‘आधुनिक’ का विशेषण अनावश्यक है।
शमशेर के शिल्प के संबंध में यह बात भी मुझे कहनी है कि प्रसंगबद्ध भावना की प्रसंग-विशिष्टता सुरक्षित रखकर, प्रसंग को पार्श्वभूमि में हटाते हुए उसको बिल्कुल ही उड़ा देने से, काव्य के रसास्वादन में कुछ तो बाधा होती ही है।
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ऐतिहासिक युग में कोई विशेष ऐतिहासिक घटना-विकास हो रहा हो, उसका ठीक-ठीक प्रतिबिंब साहित्य में उभरे ही—यह आवश्यक नहीं है।
अनुभवी कवि आभ्यंतर भाव-संपादन का महत्व जानता है।
आधुनिक हिंदी काव्य में वास्तविक प्रणय-भावना, बहुत थोड़ी जगह और बहुत अल्प मात्रा में है।
कविता; विशेषकर आत्मपरक कविता ने, हिंदी साहित्य-चिंतन-धारा को अत्यधिक प्रभावित किया है।
aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
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