
संतोष की भाषा धीमी होती है, क्योंकि वह शब्दों और मौन दोनों में व्यक्त होती है।

त्यागने की संतुष्टि और अनुभव की संतुष्टि में बहुत बड़ा अंतर है।

प्रेम एक पर्याप्त ‘यौन-संतुष्टि का परिणाम’ क़तई नहीं है। उल्टे यौन-सुख—और तथाकथित यौन-तकनीकों का ज्ञान भी—‘प्रेम का परिणाम’ होता है।

…यही लिखने की संतुष्टि है कि कोई इतने सारे लोगों की नक़ल कर सकता है।

अपने हाथ से अपने आदमियों की सेवा और यत्न करने में कितनी तृप्ति होती है, कितना आनंद मिलता है, यह स्त्री जाति के सिवा और कोई नहीं समझ सकता।

हमने ऐसा संसार बनाया है जिसमें संतुष्ट शरीर हैं और असंतुष्ट मन हैं।

जिस प्रकार देवताओं को अमृत, पितरों को स्वधा (हवि की आहुति) तथा नागों को सुधा तृप्तिकारक है, उसी प्रकार मनुष्यों को गंगाजल तृप्तिकारक है।

संसार की इच्छाओं से तृप्ति नहीं होती, जैसे गिरती जल राशि से महासागर की तृप्ति नहीं होती।

जो मन नहीं मार सकता, जिसे झुकना और छोटा बनना नहीं आता, जिसे दूसरों की सुविधा और दूसरों को निभाने की दृष्टि से झुकना और राह छोड़ना नहीं आता—वह ज़िंदगी में कभी कुछ नहीं कमा पाता—ज़िंदगी का संतोष भी नहीं।

यश तो अहं की तृप्ति है।

ईमानदारी वैभव का मुँह नहीं देखती, वह तो मेहनत के पालने पर किलकारियाँ मारती है और संतोष पिता की तरह उसे देखकर तृप्त हुआ करता है।


मुझे लोभ रूपी सर्प ने डस लिया है और स्वार्थ रूपी संपत्ति से मेरे पैर भारी हो गए हैं। आशा रूपी तरंगों ने मेरे शरीर को तपा डाला है। और गुरुकृपा से संतोषरूपी वायु शीतलता प्रदान कर रहा है। मुझे विषयरूप नीम मीठा लगता है और भजनरूपी मधुर गुड़ कड़वा लग रहा है।

अपना नाम छपा हुआ देखना निश्चित ही सुखद होता है। पुस्तक तो पुस्तक ही है भले ही उसमें कुछ न हो।

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere