
अहिंसा, सत्य बोलना, क्रूरता त्याग देना, मन और इंद्रियों को संयम में रखना तथा सबके प्रति दयाभाव बनाए रखना इन्हीं को धीर पुरुषों ने तप माना है, शरीर को सुखाना तप नहीं है।

स्नान करने, दान देने, शास्त्र पढ़ने, वेदाध्ययन करने को तप नहीं कहते। न तप योग ही है और न यज्ञ करना। तप का अर्थ है वासना को छोड़ना, जिसमें काम-क्रोध का संसर्ग छूटता है।

मन की प्रसन्नता, सौम्यता, मौन, आत्म-निग्रह और भावशुद्धि को मानसिक तप कहा जाता है।

जो उद्वेग न करने वाला, सत्य, प्रिय और हितकारक भाषण है, और जो स्वाध्याय का अभ्यास करना है, उसको वाचिक तप कहते हैं।


तप परमतत्त्व का प्रकाशक प्रदीप कहा गया है। आचार धर्म का साधक है। ज्ञान परब्रह्मस्वरूप है। संन्यास उत्तम तप कहा जाता है।

तप से हुआ क्या लाभ जब दुष्कर्म में ही लीन हो।



साधन की आवश्यकता सामान्य लोगों की होती है, योगियों के तो सभी काम तप से ही पूरे होते हैं।

देवता, ब्राह्मण, गुरु और ज्ञानी जनों का पूजन एवं पवित्रता, सरलता, ब्रह्मचयं और अहिंसा को शरीर संबंधी तप कहा जाता है।

निश्चय ही अभाव में आनंदानुभव करना तप है।
aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere