आग पर उद्धरण
सृष्टि की रचना के पाँच
मूल तत्त्वों में से एक ‘पावक’ जब मनुष्य के नियंत्रण में आया तो इसने हमेशा के लिए मानव-इतिहास को बदल दिया। संभवतः आग की खोज ने ही मनुष्य को प्रकृति पर नियंत्रण के साथ भविष्य में कूद पड़ने का पहली बार आत्मविश्वास दिया था। वह तब से उसकी जिज्ञासा का तत्त्व बना रहा है और नैसर्गिक रूप से अपने रूढ़ और लाक्षणिक अर्थों के साथ उसकी भाषा में उतरता रहा है। काव्य ने वस्तुतः आग के अर्थ और भाव का अंतर्जगत तक वृहत विस्तार कर दिया है, जहाँ विभिन्न मनोवृत्तियाँ आग के बिंब में अभिव्यक्त होती रही हैं।

प्यार एक आग है यह सबको जला देता है यह हर किसी को विकृत कर देता है यह दुनिया की बदसूरती के लिए बहाना है।

स्त्रियाँ मनुष्यों को जन्म देने वाली किंतु प्राणों को हरने वाली भी हैं। ये भीरु स्वभाव वाली भी हैं तथा अग्नि में भी प्रवेश कर सकती हैं। ये अत्यंत कठोर भी हैं, साथ ही पल्लव के समान कोमल अंगों वाली भी हैं। वे सहज ही मुग्ध हो जाने वाली हैं किंतु विदग्ध जनों को ठग भी सकती हैं।

जलती हुई आग से सुवर्ण की पहचान होती है, सदाचार से सत्य पुरुष की, व्यवहार से श्रेष्ठ पुरुष की, भय प्राप्त पर शूर की, आर्थिक कठिनाई में धीर की और कठिन आपत्ति में शत्रु एवं मित्र की परीक्षा होती है।

वह प्रेम करते समय समुद्र से भी अधिक गहरी और गंभीर हो जाती है और निराश होने पर आग की लपट से भी अधिक भयानक।

हे भारत! मनुष्य को चाहिए कि वह साँप, अग्नि, सिंह और अपने कुल में उत्पन्न व्यक्ति का अनादर न करे, क्योंकि ये सभी बड़े तेजस्वी होते हैं।

आत्मा को न तो शस्त्र काट सकते हैं, न आग जला सकती है। उसी प्रकार न तो इसको पानी गला सकता है और न वायु सुखा सकता है। यह आत्मा कभी न कटने वाला, न जलने वाला, न भीगने वाला और न सूखने वाला तथा नित्य सर्वव्यापी, स्थिर, अचल एवं सनातन है।

ईंधन से जलाई गई अग्नि कृषि योग्य पृथ्वी को जला भले ही देती है, किंतु उसे इस योग्य अवश्य कर देती है कि बीजों में अंकुर उपजा सके।

हे धृतराष्ट्र! जलती हुई लकड़ियाँ अलग-अलग होने पर धुआँ फेंकती हैं और एक साथ होने पर प्रज्वलित हो उठती हैं। इसी प्रकार जाति-बंधु भी आपस में फूट होने पर दुख उठाते हैं और एकता होने पर सुखी रहते हैं।

हे अर्जुन! सहज कर्म दोषयुक्त होने पर भी त्यागना नहीं चाहिए क्योंकि धुएँ से अग्नि के सदृश सब ही कर्म किसी न किसी दोष से आवृत होते हैं।

मेरा शरीर जलकर अवश्य राख होगा और वृक्षों में खाद के रूप में उपयोगी होगा। जब उस वृक्ष की लकड़ी लेकर बढ़ई अपने कौशल से प्रभु के लिए पादुका बनाएगा, उस समय भी (उसमें स्थित) मुझे प्रभु की पद-सेवा का सौभाग्य मिलेगा ही।

अग्नि की महिमा इसी में मानी जाती है कि वह समुद्र में भी वैसे ही प्रज्वलित हो जैसे सूखी घास में।

धुआँ देने के लिए मत जल। ज़ोर-ज़ोर से प्रज्वलित हो और देगपूर्वक आक्रमण करके शत्रु सैनिकों का संहार कर डाल। तू एक मुहूर्त या एक क्षण के लिए भी वैरियों के मस्तक पर जलती हुई आग बनकर छा जा।

तू तिंदुक की जलती हुई लकड़ी के समान दो घड़ी के लिए भी प्रज्वलित हो जो (थोड़ी देर के लिए ही सही, शत्रु के सामने महान पराक्रम प्रकट कर) परंतु जीने की इच्छा से भूसी की ज्वालारहित आग के समान केवल धुआँ न कर।

विषय-भोग की इच्छा विषयों का उपभोग करने से कभी शांत नहीं हो सकती। घी की आहुति डालने से अधिक प्रज्वलित होने वाली आग की भाँति वह और भी बढ़ती ही जाती है।

ॠण, अग्नि और शत्रु शेष रह जाने पर बार-बार बढ़ते हैं, इसलिए इनमें से किसी को शेष नहीं छोड़ना चाहिए।

आँच केवल आग में ही नहीं पाई जाती। कभी एकांत मिले तो अपने लिखे हुए के तापमान को जाँचो।

अग्नि का जला घाव तो भीतर से पूर्णतया ठीक हो जाता है, और बाहर एक चिह्न मात्र रह जाता है परंतु जिह्वा का लगा घाव कभी अच्छा नहीं हो सकता।

हे राजन्! चाहे दो ही घड़ी के लिए हो पर मनुष्य को तिंदुक की लकड़ी की मशाल के समान ज़ोर से प्रज्वलित होना चाहिए, दीर्घकाल तक भूसी की आग के समान बिना ज्वाला के ही धुआँ नहीं उठाना चाहिए।


अपने तेज़ की अग्नि में जो सब कुछ भस्म कर सकता हो, उस दृढ़ता का, आकाश के नक्षत्र कुछ बना-बिगाड़ नहीं सकते।

घी से सिक्त होने पर थोड़ी सी भी अग्नि धधक उठती है। एक बीज हज़ारों बीजों में परिणत हो जाता है। उत्थान और पतन बहुत अधिक हो सकता है। अतः मनुष्य को अपने थोड़े से धन की भी अवमानना नहीं करना चाहिए।

कहीं भी आग लगना बुरा है, मगर यह उत्साह पैदा करता है। आग आदमी को आवाज़ देकर सामने कर देती है।

आग हर शहर में जला सकती है। यह आग का धर्म है।

अग्नि से जलते हुए एक ही सूखे वृक्ष से समस्त वन इस प्रकार जल जाता है जैसे एक ही कुपुत्र से संपूर्ण कुल।

दुष्ट बुद्धि वाला व्यक्ति अपने दोष से महापुरुषों का अतिक्रमण करता हुआ नष्ट होता है। अग्नि स्वेच्छा से शलभों को ईंधन नहीं बनाती।

जल और अग्नि के समान धर्म और क्रोध का एक स्थान पर रहना स्वभाव-विरुद्ध है।
aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere