स्वच्छता इत्यादि के नियमों का पालन करते हुए और खाद्याखाद्य के विवेक की रक्षा करते हुए, सब वर्णों के एक पंक्ति में खाने में कोई भी दोष नहीं है। किसी ख़ास वर्ण के आदमी का ही बनाया भोजन होना बिल्कुल ज़रूरी नहीं है।
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शारीरिक स्वच्छता के सिवा और भी साफ-सुथरी आदतें डालने की ज़रूरत है।
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मनुष्य को चाहिए कि वह ईर्ष्यारहित, स्त्रियों का रक्षक, संपत्ति का न्यायपूर्वक विभाग करने वाला, प्रियवादी, स्वच्छ तथा स्त्रियों के निकट मीठे वचन बोलने वाला हो, परंतु उनके वश में कभी न हो।
हमारा काम तभी अंतरात्मा से प्रेरित हो सकता है जब अपने-आप में वह स्वच्छ हो, उसका हेतु स्वच्छ हो और उसका परिणाम भी स्वच्छ हो।
आज की भारतवर्ष की स्थिति में कताई तथा मलमूत्र साफ़ करके इसकी उचित व्यवस्था करना, आश्रम में यज्ञ-कर्म माना गया है।
स्वच्छ क्रांति तो प्रेम व न्याय के सिद्धांत से ही हो सकती है।
ग़लती स्वीकार करना झाड़ू के समान है, जो गंदगी को हटाकर सतह को साफ़ कर देती है।
यह कितनी ग़लत बात है कि हम मैले रहें और दूसरों को साफ़ रहने की सलाह दें।
मल, कूड़ा-करकट आदि अनर्थकारी पदार्थों के संबंध की व्यवस्था के लिए किया हुआ परिश्रम भी, यज्ञ का एक प्रकार ही कहा जाता है। ऐसा परिश्रम हरेक को अवश्य करना चाहिए।
असली भंगी को भीतर की भी सफ़ाई करनी होती है, जो मैं कर रहा हूँ।
आहार-विहार की भूलों को दूर किए बिना, सिर्फ़ हवा-पानी के सुधार से रोग दूर करने की इच्छा करना—शरीर को साफ़ पानी से धोकर मैले गमछे से पोंछने जैसा है।
जो आदमी अपने हाथ साफ़ नहीं रखता, वह साफ़ चीज़ क्या देखेगा और उसकी कहाँ तक क़दर करेगा।
ईंट-चूने की चुनाई पहले हृदय-मंदिर की चुनाई बहुत ज़रूरी है अगर यह हो जाए तो और सब तो हुआ ही है।
हमारी आँखों को ऐसा अभ्यास होना चाहिए कि वे गंदगी को देखकर खामोश न रह सकें।
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जब चीज़ें साफ़ होती हैं, काफ़ी देर हो चुकती है।
aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere