लेखक को अपनी पुस्तक में ब्रह्मांड में ईश्वर की तरह होना चाहिए, जो हर जगह मौजूद है और कहीं भी दिखाई नहीं देता है।
शब्दों के ब्रह्मांड में सोलह-सोलह सूर्य प्रज्वलित रहे हैं। वहाँ कुछ भी बाधित नहीं है, सब कुछ पूर्ण है, प्रचुर है।
ब्रह्मांड कितना बड़ा है, यह बड़ा सवाल नहीं है, मनुष्य की बुद्धि कितनी बड़ी है, यही बड़ा सवाल है।
जब हम अपने वैश्विक दृष्टिकोण में चंद्रमा के अँधेरे पक्ष को शामिल कर लेंगे, केवल तभी हम सर्वव्यापी संस्कृति पर गंभीरता से बात कर सकते हैं।
जिस तरह से विधाता ने सृष्टि को गढ़ा; उस तरह से मनुष्य ने नहीं गढ़ना चाहा, उस दृष्टि से मनुष्य ने सृष्टि को देखना भी नहीं चाहा।
ब्रह्मांड एक क़ैद है जिस से कोई बाहर नहीं जा सकता। उम्मीद, जो मृत्युशैय्या पर पुनर्जीवित होती लगती है, तुरंत नकार दी जाती है। इसके बावजूद उम्मीद का अटूट धागा बना रहता है।
एक क्षण के लिए यदि आप शांत बैठकर ऐसा विचार करें कि आप विश्वमानव हैं, आप अनंत शक्ति हैं, तो आप देखेंगे कि आप वास्तव में वही हैं।
जो है नहीं, उस चित्र को दिखाती है, पर होती है केवल दीवार। उसी प्रकार संपूर्ण जगदाकार से जो प्रकाशित होती है, वह संवित्ति (संवित्, चेतना) है।
इस समस्त विश्व के रचयिता और पिता को प्राप्त करना बहुत कठिन है तथा उसे पाकर सबको बताना असंभव ही है।
यदि अच्छी तरह से सांत्वना पूर्ण, मधुर एवं स्नेहयुक्त वचन बोला जाए और सदा सब प्रकार से उसी का सेवन किया जाए तो उसके समतुल्य इस जगत में निस्संदेह कुछ नहीं है।
aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere