
अज्ञान निर्दोषता नहीं है, पाप है।



पवित्रता की माप है मलिनता, सुख का आलोचक है दुःख, पुण्य की कसौटी है पाप।

तू सब धर्मों को छोड़कर एक परमात्मा की शरण में जा, परमात्मा तुझे सब पापों से मुक्त करेगा। तू मत शोक कर।

क्षमाशील पुरुषों में एक ही दोष का आरोप होता है। दूसरे की तो संभावना ही नहीं है। दोष यह है कि क्षमाशील को लोग असमर्थ समझ लेते हैं किंतु क्षमाशील का वह दोष नहीं मानना चाहिए क्योंकि क्षमा में बड़ा बल है।

हे अर्जुन! सहज कर्म दोषयुक्त होने पर भी त्यागना नहीं चाहिए क्योंकि धुएँ से अग्नि के सदृश सब ही कर्म किसी न किसी दोष से आवृत होते हैं।

वह सबको शरण देने वाला है, दाता और सहायक है। अपराधों को क्षमा करने वाला है, जीविका देने वाला है और चित्त को प्रसन्न करने वाला है।

हमें जिस पाप ने घेर रखा है, वह हमारा मतभेद नहीं बल्कि हमारा ओछापन है। हम शब्दों पर झगड़ा करते हैं। कई बार तो हम परछाई के लिए लड़ते हैं और मूल वस्तु को खो बैठते हैं।

मनुष्य की हृदयभूमि में मोह रूपी बीज से उत्पन्न हुआ एक विचित वृक्ष है जिसका नाम है काम। क्रोध और अभिमान उसके महान स्कंध हैं। कुछ करने की इच्छा उसमें जल सींचने का पात्र है। अज्ञान उसकी जड़ है, प्रमाद ही उसे सींचने वाला जल है, दूसरे के दोष देखना उस वृक्ष का पत्ता है तथा पूर्वजन्म के किए गए पाप उसके सार भाग है। शोक उसकी शाखा, मोह और चिंता डालियाँ एवं भय उसका अँकुर है। मोह में डालने वाली तृष्णा रूपी लताएँ उसमें लिपटी हुई है।

पाप कर्म बन जाने पर सच्चे हृदय से पश्चात्ताप करने वाला मनुष्य उस पाप से छूट जाता है तथा फिर कभी ऐसा कर्म नहीं करूँगा, ऐसा दृढ़ निश्चय कर लेने पर भविष्य में होने वाले दूसरे पाप से भी मुक्त हो जाता है।

कुसंग से बढ़कर पाप संसार में नहीं है और कुसंगी के साथ रहने के कारण बहुत दुःख झेलना पड़ता है।

कुल के नाश होने से सनातन कुलधर्म नष्ट हो जाते हैं। धर्म के नाश होने से संपूर्ण कुल को पाप भी बहुत दबा लेता है।

भगवान भले ही पापों को क्षमा कर दे किंतु स्नायु-संस्था हमें किसी भी भूल के लिए क्षमा नहीं करती।

जब तक इस संसार से पाप बिल्कुल ही मिटा न दिया जाएगा, जब तक मनुष्य का मन पत्थर न बन जाएगा, तब तक इस पृथ्वी में अन्याय-मूल भ्रांति होती ही रहेगी और उसे क्षमा करके प्रश्रय भी देना ही पड़ेगा।

कार्य की सफलता का मूल कारण है उत्तम उद्योग। उद्योग के बिना कोई भी सिद्धि नहीं होती है। उद्योग से ही सब समृद्धियों का उदय होता है और जहाँ उद्योग नहीं है, वहाँ पाप ही पाप है।

वत्स! जो सदा क्षमा ही करता है, उसे अनेक दोष प्राप्त होते हैं उसके भृत्य, शत्रु तथा उदासीन सभी उसका तिरस्कार करते हैं।

बिना करनी के सोचते रहना ही कदाचित असली पाप है।

क्रोधी मनुष्य पाप कर सकता है, क्रोधी गुरुजनों की हत्या कर सकता है, क्रोधी कठोर वाणी द्वारा श्रेष्ठ जनों का अपमान भी कर सकता है।
क्रोधी मनुष्य यह नहीं समझ पाता कि क्या कहना चाहिए तथा क्या नहीं। क्रोधी के लिए कुछ भी अकार्य एवं अवाच्य नहीं है।

यदि पापी अपने पाप का फल एकांत में या अपनी आत्मा ही में भोग कर चला जाता है तो वह अपने जीवन की सामाजिक उपयोगिता की एकमात्र संभावना को भी नष्ट कर देता है।

हे साक़ी! ईश्वर-प्रेम की मदिरा मुझको पुरस्कार में प्राप्त हुई है। बिना ईश्वर-प्रेम की मदिरा पीने वाला पापी है। ईश्वर प्रेम से रहित मनुष्य कुछ भी नहीं कर सकता है। मनुष्य-जीवन का उद्देश्य ईश्वर प्रेम को प्राप्त करना है।

शुभ कर्म से सुख तथा पाप कर्म से दुःख प्राप्त होता है, सर्वत्र कर्म ही फल देता है, बिना किए हुए कर्म का फल कहीं नहीं भोगा जाता।

दर्शन से, स्पर्श से, जलपान करने तथा नाम कीर्तन से सैकड़ों तथा हज़ारों पापियों को गंगा पवित्र कर देती है।

जिस गृहस्थ के घर से अतिथि निराश होकर लौट जाता है, वह उस गृहस्थ को अपना पाप देकर उसका पुण्य ले जाता है।

पापों का फल तत्काल समझ में नहीं आता। उसका ज़हर अवस्था की तरह ठीक अपने समय पर चढ़ता है।

परोपकार पुण्य तथा पर पीड़ा पाप है।

राजन्! परिहासयुक्त वचन असत्य होने पर भी हानिकारक नहीं होता। अपनी स्त्रियों के प्रति, विवाह के समय, प्राण-संकट के समय तथा सर्वस्व का अपहरण होते समय विवश होकर असत्य भाषण करना पड़े तो वह दोषकारक नहीं होता। ये पाँच प्रकार के असत्य पापशून्य कहे गए हैं।

जिस कर्म से ईश्वर हमसे दूर होता है वह पाप है।

एक छेद भी जहाज़ को डुबा देता है और एक पाप भी पापी को नष्ट कर देता है।

द्विधा और दुर्बलता पाप हैं। पाप ही क्यों, महापाप हैं।

जहाँ पाप है, वहाँ पाप-पुंज-हारी भी हैं।

जिस प्रकार पापियों का स्पर्श अंगों को दूषित करता है, उसी प्रकार उनका कीर्तन वाणियों को दूषित करता है, अतः उसकी अन्य नृशंसता का वर्णन नहीं किया गया है।

कोई बात प्राचीन है इसलिए वह अच्छी है ऐसा मानना बहुत ग़लत है। यदि प्राचीन सब अच्छा ही होता तो पाप कम प्राचीन नहीं है। परन्तु चाहे जितना भी प्राचीन हो, पाप त्याज्य ही रहेगा।

जिस कार्य से परिणाम में अपना और दूसरों का हित हो, वही धर्म है और जिससे परिणाम में अपना और दूसरों का अहित हो, वही पाप है।



पाप का फल छिपाने वाला पाप छिपाने वाले से अधिक अपराधी है।

पाप केवल इसलिए बुरा नहीं है कि उससे अपने आपको नरक मिलता है, बुरा वह इसलिए है कि उसकी दुर्गंध से दूसरे का दम भी बिना घुटे नहीं रहता।

दया के समान पाप को प्रोत्साहित करने वाला अन्य कुछ नहीं है।

यहाँ हम सभी समान रूप से पापी हैं, अपने पाप के मापदंड से दूसरों के पाप की माप-तौल करते हैं।

मूर्ख मनुष्य विद्वानों को गाली और निंदा से कष्ट पहुँचाते हैं। गाली देने वाला पाप का भागी होता है और क्षमा करने वाला पाप से मुक्त हो जाता है।

गौओं का नाम ही 'अघ्न्या' (अवध्य) है, फिर इन गौओं को कौन काट सकता है? जो लोग गौ को या बैल को मारते हैं, वे बड़ा अयोग्य कर्म करते हैं।
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