आर्य संस्कृति और आर्यों में ‘ऋग्वेद’ का प्रमुख देवता इन्द्र था। यद्यपि ब्रह्मा, विष्णु, महेश—तीनों का नाम लिया जाता है। ब्रह्मा की महिमा धीरे-धीरे घटती गई। इन्द्र की महिमा घटती गई और कृष्ण आते गए। इसका मूल स्रोत कहीं लोकजीवन से जोड़कर देखना चाहिए।
पं. रामचंद्र शुक्ल जो निर्गुण मत को कोसते हैं, वह यों ही नहीं, इसके पीछे उनकी सारी पुराण-मतवादी चेतना बोलती है।
निर्गुण मतवाद के जनोन्मुख रूप और उसकी क्रांतिकारी जातिवाद-विरोधी भूमिका के विरुद्ध, तुलसीदासजी ने पुराण-मतवादी स्वरूप प्रस्तुत किया।
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उच्च वर्गों द्वारा भक्ति काव्य के आयत्तीकरण (Appropriation) की इस प्रक्रिया का ही एक रूप है—भक्ति आन्दोलन को मुस्लिम आक्रमणकारियों की प्रतिक्रिया के रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश।
भक्ति का कोषगत अर्थ है—विभाजन। जहाँ अलगाव है, वहीं भक्ति है। इसलिए भक्ति का एक अर्थ जो विभाजन है, वह जीवन और ब्रह्म का शाश्वत विभाजन है।
तुलसीदास ने रामराज्य के रूप में एक यूटोपिया की सृष्टि की है। भक्त इस लोक को अपर्याप्त समझते थे। उन्होंने एक स्वप्न देखा था। स्वप्नदर्शी भी थे इसलिए उन्होंने एक ऐसे लोक की भी कल्पना की, कम-से-कम उसका स्वप्न देखा और समाज के सामने आदर्श रखा।
प्राचीन समाज-व्यवस्था में चाहे आदमी जिस जाति का हो, लेकिन उस जाति को छिपाता नहीं था। उस जाति का होने में भी अपने-आपमें एक सम्मान अनुभव करता था। आज वह मनुष्य ज्यादा उपेक्षित, पीड़ित, दलित और पतित मान लिया गया है।
भक्तों ने पहली बार यह स्थापित किया कि भक्त का महत्त्व जात के कारण नहीं, कुल के कारण नहीं, पद के कारण नहीं, सम्पत्ति के कारण नहीं, धर्म के कारण नहीं होता—बल्कि उसका महत्त्व होता है उसके भक्ति भाव के कारण। इसलिए वह व्यक्ति रूप में महत्त्वपूर्ण है।
भावना की तीव्र आर्द्रता और सारे दुःखों और कष्टों के परिहार के लिए ईश्वर की पुकार के पीछे जनता की भयानक दुःस्थिति छिपी हुई थी।
निर्गुण-मतवादियों का ईश्वर एक था, किंतु अब तुलसीदासजी के मनोजगत में परब्रह्म के निर्गुण-स्वरूप के बावजूद, सगुण ईश्वर ने सारा समाज और उसकी व्यवस्था—जो जातिवाद, वर्णाश्रम धर्म पर आधारित थी—उत्पन्न की।
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निर्गुण मत के विरुद्ध सगुण मत का प्रारंभिक प्रसार और विकास उच्चवंशियों में हुआ।
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भक्ति-भावना के राजनीतिक गर्भितार्थ थे। ये राजनीतिक गर्भितार्थ तत्कालीन सामंती शोषक वर्गों और उनकी विचारधार के समर्थकों के विरुद्ध थे।
व्यक्ति मानव की गरिमा की स्थापना भारतीय इतिहास में पहली बार जिस दृढ़ता के साथ भक्त ने की, यह उसकी आधुनिकता का प्रमाण है।
भक्ति कविता का संसार से जो सम्बन्ध है, मुझे एक किसान की टिनेसिटी (तपस्या) मालूम होती हैं कि तकलीफ़ होने के बावजूद खेत से जुड़ा है।
भक्ति-आंदोलन का आविर्भाव, एक ऐतिहासिक-सामाजिक शक्ति के रूप में जनता के दु:खों और कष्टों से हुआ, यह निर्विवाद है।
भारतीय संगीत के इतिहास में भक्ति के आने के साथ भजन और कीर्तन से एक नए संगीत की शुरुआत हुई।
आदमी की पहचान केवल नाम से ही नहीं होती, रूप से भी होती है। इसलिए भक्तों ने भगवान को रूप ही नहीं दिया बल्कि भगवान जिस देश में आए, उस देश के प्रत्येक प्रदेश को और उसकी अपनी भाषाई अस्मिता में आत्मसात् किया।
पंडित रामचंद्र शुक्ल के इस कथन में हमें पर्याप्त सत्य मालूम होता है कि भक्ति आंदोलन का एक मूल कारण जनता का कष्ट है। किंतु पंडित शुक्ल ने इन कष्टों के मुस्लिम-विरोधी और हिंदू-राजसत्ता के पक्षपाती जो अभिप्राय निकाले हैं, वे उचित नहीं मालूम होते।
छठी-सातवीं शताब्दी के आसपास भारतीय इतिहास में भक्ति की जो ऐतिहासिक क्रान्तिकारी घटना हुई थी, उसका जन्म लोकजीवन में हुआ था, लोकभाषा में हुआ था। उसका श्रेय आदि-अद्विज अब्राह्मणों को है। इसे दलित और पिछड़े वर्ग के लोगों ने शुरू किया था।
जिस प्रकार स्वच्छंद समाज का स्वप्न अंग्रेज कवि शेली देखा करते थे, उसी प्रकार का यह समाज सूर ने चित्रित किया है।
वैष्णवों का कृष्ण—लोकल और क्लासिकल का संयुक्त रूप है।
उत्तर भारत में निर्गुणवादी भक्ति आंदोलन में शोषित जनता का सबसे बड़ा हाथ था।
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सुधारवादियों की तथा आज की भी एक पीढ़ी को तुलसीदासजी के वैचारिक प्रभाव से संघर्ष करना पड़ा, यह भी एक बड़ा सत्य है।
भक्तिकालीन संतों के बिना महाराष्ट्रीय भावना की कल्पना नहीं की जा सकती, न सिख गुरुओं के बिना सिख जाति की।
भक्ति आंदोलन जनसाधारण से शुरू हुआ और जिसमें सामाजिक कट्टरपन के विरुद्ध जनसाधारण की सांस्कृतिक आशा-आकांक्षाएँ बोलती थीं, उसका 'मनुष्य-सत्य' बोलता था, उसी भक्ति आंदोलन को उच्चवर्गीयों ने आगे चलकर अपनी तरह बना लिया, और उससे समझौता करके, फिर उस पर अपना प्रभाव क़ायम करके और अनंतर जनता के अपने तत्त्वों को उनमें से निकालकर, उन्होंने उस पर अपना पूरा प्रभुत्व स्थापित कर लिया।
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साधारण जनों के लिए कबीर का सदाचारवाद, तुलसी के संदेश से अधिक क्रांतिकारी था।
ब्राह्मणेतर संत-कवि की काव्य-भावना अधिक जनतंत्रात्मक, सर्वांगीण और मानवीय थी।
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तुलसीदास कहते हैं ‘कबहूँ हौं यहि रहनि रहौंगो’— यह जो रहनि है, इसे ही कल्वर कहते हैं। यह रहनि यह नहीं है कि कैसे रहेंगे। यह नित्यकर्म करना नहीं है।
उच्चवर्गीयों का एक भावुक तबका भक्ति-आंदोलन से हमेशा प्रभावित होता रहा, चाहे वह दक्षिण भारत में हो या उत्तर भारत में।
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तुलसीदास ने कहा कि केवल वह न कीजिए, जो लोक-सम्मत हो, जो केवल लोगों को अच्छा लगे। वह कीजिए जो साधु सम्मत हो, अर्थात् विवेकपूर्ण हो, उचित हो, बुद्धिसंगत हो, सिद्धान्ततः सही हो। इसलिए लोकमत और साधुमत, दोनों को ध्यान में रखिए।
समूचे भारतीय चिन्तन और भारतीय संवेदना के शताब्दियों लंबे, वेद से लेकर आज तक के पूरे इतिहास पर दृष्टिपात करें तो एक महत्त्वपूर्ण बात दिखाई पड़ती है और वह है छठी से नवीं शताब्दी के बीच में एक शिफ्ट, अवसरण या परिवर्तन।
तुलसी हिंदी साहित्य के भक्तिकाल तथा भारतीय इतिहास के मुग़लकाल के संदर्भ में अत्यधिक प्रासंगिक हैं।
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छठी शताब्दी के आसपास एक सांस्कृतिक शिफ्ट थी, एक परिवर्तन था, एक क्रान्ति हुई थी और इस क्रान्ति का ही एक प्रचलित नाम भक्ति है।
हिन्दी के सूफी संतों ने लोककथाओं को अपने आदर्शों के लिए अपनाया। लोककथाओं को इस तरह अपनाने का उत्साह, हिन्दी के हिन्दू-भक्त कवियों में नहीं देखा गया।
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शृंगार-भक्ति का रूप उसी वर्ग में सर्वाधिक प्रचलित हुआ, जहाँ ऐसी शृंगार-भावना के परिपोष के लिए पर्याप्त अवकाश और समय था—फुर्सत का समय।
भक्ति के साथ नृत्य-कला का विकास हुआ।
'भक्ति-काव्य' को केवल काव्य तक सीमित रखना, उसे अधूरा रखना है। भले ही आरम्भ उसका काव्य के रूप में हुआ है लेकिन अगर आप ध्यान दें कि उसका अन्य कलाओं में भी विस्तार हुआ।
सच्चाई तो यह है कि भक्ति एक तरह से कविता में भाषा का नृत्य है। यह एक उन्माद है। चैतन्य महाप्रभु का सम्बन्ध साक्षात् रूप से उसके साथ जुड़ा हुआ है। वह भक्ति के आवेश में नाचने लगते थे।
क्या यह एक महत्वपूर्ण तथ्य नहीं है कि रामभक्ति-शाखा के अंतर्गत, एक भी प्रभावशाली और महत्वपूर्ण कवि—निम्नजातीय शूद्र वर्गों से नहीं आया?
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भक्ति महारस है और यह 'नाट्यशास्त्र' के विभिन्न रसों में से एक है। वह रस ऑब्जेक्टिव निर्वैयक्तिक हो सकता है। कालिदास ने कहा है कि यह भावयिक रस है। इसमें भक्ति के अनुभव पर ज़ोर है। भाव पर है। 'भक्ति-भाव' शब्द का प्रयोग आम तौर पर व्यवहार में होता है।
दक्षिण ने जिस कृष्ण की मूर्ति ‘श्रीमद्भागवत’ में गढ़ी और जो दक्षिण में रचा गया था—वह महाभारत के कृष्ण से अलग
क्या यह एक महत्वपूर्ण तथ्य नहीं है कि कृष्णभक्ति शाखा के अंतर्गत रसखान और रहीम जैसे हृदयवान मुसलमान कवि बराबर रहे आए, किंतु रामभक्ति-शाखा के अंतर्गत एक भी मुसलमान और शूद्र कवि, प्रभावशाली और महत्वपूर्ण रूप से अपनी काव्यात्मक प्रतिभा विशद नहीं कर सका?
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सम्प्रदायवाद सामन्तवाद का ही एक अस्त्र है और मध्यकालीन संत कवियों का सम्प्रदायवाद-विरोध, उनके व्यापक सामन्तवाद-विरोधी संघर्ष का ही एक अंग है।
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कबीर जैसा आदमी 'नाच रे मन मद नाच' कहते हुए नाचता हुआ-सा दिखाई पड़ता है।
भक्ति अपने-आपमें टोटल कल्चर है, केवल कविता नहीं है।
वह व्यवस्था अनाधुनिक है जिसमें किसी का महत्त्व; उसके कुल के कारण होता है, किसी का महत्त्व उसके पद के कारण होता है, किसी का महत्त्व उसकी जाति के कारण होता है, किसी का महत्त्व उसके धर्म के कारण होता है।
भक्ति साहित्य, जात-पाँत के विरुद्ध विद्रोह करता है। जात-पाँत के खंडन का सबसे बड़ा प्रमाण है कि भक्ति भगवान के साथ भक्तों को स्पर्श कराना चाहता है।
मैं यह कहना चाहता हूँ कि पहली बार भक्ति ने एक और बड़ा काम किया, वह यह कि देश ने अपनी भाषीय अस्मिता को उभारा।
भक्त कर्म-बन्धन से मुक्ति नहीं चाहते थे। बार-बार जन्म लेना चाहते थे। भगवान के चरणों में प्रेम करना चाहते थे और मुक्ति का निरादार करते थे। यह अपने-आपमें प्रमाण है कि दु:खी रहते हुए भी इस संसार में उनकी आस्था थी।
दार्शनिक क्षेत्र का निर्गुण मत जब व्यावहारिक रूप से ज्ञानमार्गी भक्तिमार्ग बना, तो उसमें पुराण-मतवाद को स्थान नहीं था। कृष्णभक्ति के द्वारा पौराणिक कथाएँ घुसीं, पुराणों ने रामभक्ति के रूप में आगे चलकर वर्णाश्रम धर्म की पुनर्विजय की घोषणा की।
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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere