पुत्र का अपने पिता की प्रतिकृति जैसा प्रतीत होना—इस अभिप्राय का प्रयोग भी वाल्मीकि ने ही प्रारंभ किया।
समाज के द्वंद्र के कारण सीता और राम का दांपत्य, स्थूल स्तर पर खंडित होता है—हृदयसंवाद खंडित नहीं होता।
वाल्मीकि और व्यास के अनुशीलन के बिना; भारतीय इतिहास, परंपरा और संस्कृति की सही समझ पैदा नहीं हो सकती।
प्रेम की चरम परिणति दांपत्य में, स्त्री-पुरुष के प्रेम में प्रस्फुटित होती है। स्त्री और पुरुष एक-दूसरे के सहभाव से परिपूर्ण बनते हैं, यही बात सीता और राम के प्रसंग में वाल्मीकि ने कई बार कही है।
वस्तुतः करुणा और स्नेह के साथ-साथ, वाल्मीकि मनुष्य की दुराधर्षता और अपराजेयता के भी महान गायक हैं।
-
संबंधित विषय : संस्कृत साहित्य
संस्कृत के कई प्रसिद्ध मुहावरे, वाल्मीकि की लेखनी से ही प्रचलन में लाए गए।
-
संबंधित विषय : संस्कृत साहित्य
वाल्मीकि ने यथार्थ की ठोस बंजर ज़मीन पर चलते हुए, उस पर जीवन की महनीय आदर्शों का प्रासाद खड़ा किया है।
वाल्मीकि में पहली बार लोक-जीवन में रची-बसी कविता की सृष्टि हुई और वेद के बाद पहली बार छंद का एक नया या एक भिन्न स्तर पर अवतरण हुआ।
जगत में जो कुछ भी भव्य, रमणीय और कोमल है; उस पर तो वाल्मीकि की दृष्टि पड़ी ही है, साथ ही जो कुछ भी प्रचंड और विस्तीर्ण है, उसे भी उन्होंने अपनी कविदृष्टि का विषय बनाया है।
मनुष्य की मनस्तत्त्व की परीक्षा में वाल्मीकि संस्कृत कवियों में सर्वाधिक निपुण हैं।
वाल्मीकि ने मनुष्य के अंतर्मन के उत्ताप और कामना के असीम ज्वार का दर्शन किया है, पर उन्होंने हृदय की पवित्रता और कोमलता को झुलसने नहीं दिया है।
मनुष्य की मनस्तत्व की परीक्षा में वाल्मीकि, संस्कृत कवियों में सर्वाधिक निपुण हैं।
भारतीय परंपरा में रामायण तथा महाभारत—इन दोनों ग्रंथों को इतिहास कहा जाता है।
वाल्मीकि और तुलसी दोनों ही युगचेता कवि हैं।
अपनी दुर्बलताओं के कारण विनाश को प्राप्त होते हुए मनुष्य की गरिमा को भी, वाल्मीकि ने क्षति नहीं पहुँचाई है।
रामायण में सीता राम के लिए पाथेय और प्राप्तव्य ही नहीं, वह उसके जीवन की संपूर्ण नियति को निर्धारित करने वाली सजीव शक्ति है।
जीवन की गहरी पकड़ तथा कविदृष्टि के साथ वाल्मीकि ने दिखलाया है कि मनुष्य अपने जीवन के घात-प्रत्याघात, नियति के थपेड़ों तथा दूसरों के द्वारा दिए जाने वाले उत्पीड़न से किस प्रकार जूझता तथा अपने संघर्ष में अंततः उबरता है।
वाल्मीकि ने अपनी मानवीय दृष्टि द्वारा उस युग में स्त्री-पुरुष के साहचर्य की प्रतिष्ठा की।
मनुष्य हृदय की जटिल भावनाएँ, वैर और कठोरता की पर्तों के भीतर छिपा हुआ स्नेह और कोमलता—वाल्मीकि में व्यंजित हो उठते हैं।
वाल्मीकि में मनुष्य को अपना उद्धार स्वयं ही करना है, तुलसी में उसका उद्धार करने के लिए राम हैं।
रामायण और महाभारत—ये दोनों इतिहास-काव्य हमारी संपूर्ण विरासत के मेरुदंड हैं।
अभिव्यंजना की दृष्टि से सरल से सरल भाषा में; अर्थ की कई-कई लयें एक साथ झँकृत करने की क्षमता के साथ, वैदिक युग से इतिहास काल तक के लंबे समय के अंतराल को निरूपित करते हुए, भारतीय चेतना की पहचान कराने का काम—व्यास के साथ केवल वाल्मीकि ही संपन्न कर सके हैं।
वाल्मीकि के कवि रूप का आकलन सुकर कार्य नहीं है। शिल्प के स्तर पर वे नितांत प्रचलित, लोकभाषा में व्यवहृत शब्दों को उनकी सप्राणता और सहजता की क्षति किए बिना, अकल्पित सामर्थ्य से भर देते हैं।
वाल्मीकि की रचना का उपोद्घात एक आदर्श मानव की खोज से होता है।
भारतीय काव्यचिंतन में रस तथा ध्वनि की परिकल्पनाएँ, वाल्मीकि जैसे कृती रचनाकार के काव्य से ही उद्भूत हुई हैं।
राम यदि समग्र मानवीय गुणों के उज्ज्वल प्रतीक हैं, तो हनुमान समग्र मानसिक और भौतिक क्षमता के।
कविता में व्यंजना के असीम सामर्थ्य तथा उसके प्रसार की गहराई को, अनंत संभावनाओं के साथ वाल्मीकि का काव्य प्रकट करता है।
वाल्मीकि ने समूह के मनोविज्ञान के संदर्भ में, समूह के भीतर तथा समूह के पृथक—इन दोनों स्तरों पर व्यक्ति की मनोदशाओं का बहुत बारीकी से उद्घाटन किया है।
वन्यजीवन की सूक्ष्मताओं का वाल्मीकि ने जैसा विशद चित्र खींचा है, यह सुदुर्लभ है।
वाल्मीकि रामायण का नायक वह मनुष्य है, जिसके दुर्लभ गुण देवों में भी नहीं मिल सकें, देवता भी जिसके समक्ष भयभीत प्रतीत हों।
राम और सीता के जीवन की करुणा में समस्त ब्रह्माण्ड समाया-सा लगता है।
वाल्मीकि की समाजदृष्टि के बारे में यह कहा जा सकता है कि वे सार्थक तथा रचनात्मक परिवर्तन के पक्षधर हैं, पर प्रचलित व्यवस्था के विध्वंस के नहीं।
निश्चय ही वाल्मीकि में कविता जिन ऊँचाइयों को छूती है, वे बाद के भारतीय साहित्य के सर्वोच्च रचनाकारों के लिए भी अगम्य रही हैं।
अपनी दृष्टि के कारण नियति द्वारा दिए गए दारुण आघातों तथा विकट संकट की घड़ियों में भी, वाल्मीकि मनुष्य के भीतर के स्नेह, आस्था और विश्वास के स्त्रोत को खोज निकालते हैं।
-
संबंधित विषय : संस्कृत कविता
वाल्मीकि की कल्पना अपनी व्याप्ति और अंतःस्पर्श में अनुपम है।
वाल्मीकि मनुष्य की महागाथा के महनीय के रचनाकार हैं।
संस्कृत का कोई भी ऐसा महाकवि नहीं है, जिस पर किसी-न-किसी रूप में रामायण तथा महाभारत का प्रभाव न हो। कालिदास के तो रोम-रोम में वाल्मीकि रमे हुए हैं।
भारतीय समाज को जानने और समझने के लिए रामायण को जानना और समझना आवश्यक है।
एक व्यक्ति की भावनाओं का अतिशय आकुल उच्छ्वास, किसी बिंदु पर सार्वभौम मनुष्यता से जुड़कर निस्सीम हो जाता है—यह वाल्मीकि परख लेते हैं।
वाल्मीकि ने स्त्री के भार्या, पोष्या या रक्षणीया होने की प्रतिमा के समानांतर; सीता की तेजस्वी प्रतिमा स्थापित की, जो अपने ही तेज से रक्षित थी।
वाल्मीकि संत कवि हैं, तो व्यास एक दार्शनिक कवि हैं। वाल्मीकि के हृदय में महामना रावण के लिए भी करुणा और आस्था है, व्यास दुःख के दारुण झंझावातों में भी अविचलित रहते हैं।
-
संबंधित विषय : संस्कृत साहित्य
वाल्मीकि में मनुष्य की अस्मिता और स्वतंत्रता का उद्घोष है, तुलसी में मनुष्य की सार्थकता पूर्ण समर्पण में है।
वाल्मीकि शोषित मानवता के पक्षधर हैं; इसीलिए उनकी रामायण में जितनी महती कथा राम की है, उससे कहीं अधिक बड़ी और करुण कथा सीता की है। धिक्कृत नारीत्व की विडंबना को चित्रित करते हुए भी, वाल्मीकि स्त्री की अपार शक्ति में आस्था रखते हैं।
वाल्मीकि की रामायण की तुलना में व्यास के महाभारत का कलेवर बहुत बड़ा है।
विचार के आडंबर में मनुष्य की अनुभूति और संवेदना कहीं खो न जाए—यह वाल्मीकि के कवि की पुकार है।
भाषा की संभावनाओं का पता अपनी पूरी शक्तिमत्ता में वाल्मीकि के काव्य में ही पहली बार होता है।
वाल्मीकि से प्राप्त सामग्री को कालिदास ने अपनी सौंदर्यन्वेषिणी दृष्टि से संवार कर दिया है।
-
संबंधित विषय : संस्कृत साहित्य
रामायण का मूल स्वर करुणा का है, जबकि महाभारत का मूल स्वर वैराग्य का है।
वाल्मीकि की आर्ष दृष्टि ने मनुष्य के संसार में देवत्व का सृजन किया है।
-
संबंधित विषय : संस्कृत साहित्य
रामायण काव्यसौंदर्य की दृष्टि से अधिक सुसंबद्ध और सुसंगत रचना है।
aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere