कबीर जब तक अपने रंग में मस्त होकर जीवन का ज्ञान सुनाता है, तभी तक वह कलाकार है। पर जब वह हमें अपने बौद्धिक दार्शनिक निर्गुणवाद के प्रति आस्था रखने के लिए आग्रह करता-सा दिख पड़ता है, वहीं वह कला का दृष्टिकोण छोड़कर दार्शनिक दृष्टिकोण के क्षेत्र में उत्तर आता है—जिसके अलग नियम हैं और मूल्यांकन के अलग स्टैंडर्ड हैं।
किसी साहित्य का वास्तविक विश्लेषण हम तब तक नहीं कर सकते; जब तक कि हम उन गतिमान सामाजिक शक्तियों को नहीं समझते, जिन्होंने मनोवैज्ञानिक-सांस्कृतिक धरातल पर आत्मप्रकटीकरण किया है।
तू स्वयं अपना उच्च न्यायालय है। अपनी रचना का मूल्यांकन केवल तू ही कर सकता है।
इतिहास विश्वास की नहीं, विश्लेषण की वस्तु है। इतिहास मनुष्य का अपनी परंपरा में आत्म-विश्लेषण है।
सही इलाज का नुस्ख़ा वास्तविकता के कठोर विश्लेषण पर निर्भर करता है।
मैं समझता हूँ कि किसी भी साहित्य का ठीक-ठाक विश्लेषण तब तक नहीं हो सकता, जब तक हम उस युग की मूल गतिमान सामाजिक शक्तियों से बननेवाले सांस्कृतिक इतिहास को, ठीक-ठाक न जान लें।
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बौद्धिक विश्लेषण-शक्ति भावनानुभूति से एकरस और एकरूप होकर जहाँ काम करती है, वहाँ भावना की अथाह गंभीरता के साथ ही साथ, विश्लेषित भाव, तथा संश्लेषित भाव-दृश्य, सभी कुछ एक साथ प्राप्त होते हैं।
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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere