
शिल्प का प्राण होती है कल्पना, अविद्यमान की धड़कन, श्वासोच्छ्वास।

एक फ़ोटोग्राफ़र का जो कौशल होता है, उसका योग वस्तु के बाह्य रूप के साथ होता है और एक शिल्पी का जो योग होता है, वह उसके भीतर-बाहर के साथ वस्तु के भीतर-बाहर का योग होता है, और उस योग का पंथ होता है कल्पना और यथार्थ घटना—दोनों का समन्वय कराने वाली साधना।

एक व्यक्ति तो प्रलाप की तरह अंट-संट बकता चला जा रहा है और एक व्यक्ति कुछ भी नहीं कह रहा है या सीधी बातें कह रहा है—शिल्पजगत् में इन दोनों के ही लिए कोई स्थान नहीं।

किसी शिल्पकार्य, संगीत और किसी अन्य विषय में प्रवीणता तब तक नहीं होती और न हो सकती है, जबतक इंद्रियों की अनेक नित्य एवं सहज क्रियाओं में कुछ बदलाव न किया जाए।

एक शिल्पी जिसे छू लेता है, वही सोना हो जाता है। हालाँकि बेचारा किसी भी दिन अपने बाल-बच्चों के शरीर को उस सोने से कभी लाद नहीं पाता।

शिल्प का एक मूलमंत्र होता है—‘नालमतिविस्तरेण’ : अति विस्तार नहीं करना चाहिए। अति विस्तार में अपार रस रहता है, ऐसा नहीं है। अमृत तो एक बूँद होता है, लेकिन तृप्ति देता है असीम!

एक शिल्पी की अपेक्षा संसार में एक कारीगर की ही वाहवाह अधिक होती है, क्योंकि एक कारीगर वाहवाही पाकर ही कुछ गढ़ता है, और एक शिल्पी गढ़ता चलता है अपने काम के साथ, अपने को खिलता हुआ महसूस करते-करते।

शिल्पी चाहे निम्न जाति का ही क्यों न हो पर उसने शिल्प के साथ पाणिग्रहण किया है, इसी कारण शिल्पी सदा शुद्ध और पवित्र होता है—यह बात भारतवर्ष के ऋषि लोग कह गए हैं; किंतु जहाँ पर इस शिल्प का स्पर्श आजकल के हम मशीनी आदमियों ने कर लिया है—वहीं वह मलिन हो गया है।

शिल्पचर्चा का प्रारंभिक पाठ होता है शिल्पबोध, जैसे शिशु-शिक्षा का प्राथमिक पाठ होता है बालबोध।

इस देश में चित्रकला का इतिहास जितना विचित्र है, उतना मूर्ति-निर्माण का नहीं है।

शिल्प की कोई जड़ अचल अवस्था नहीं होती है, इस पृथ्वी की तरह वह प्राचीन और नित्य चिरयौवना बनी रहती है।

'अलसस्य कुतो शिल्पं, अशिल्पस्य कुतो धनम्!'—एक आलसी के लिए शिल्प कहाँ, एक शिल्प-विहीन के लिए धन कहाँ।

एक शिल्पी के कैशोर्य और यौवन की कथा भावमय कला होती है।

एक शिल्पी कितनी बड़ी कल्पना लेकर यथार्थ जगत् से परे हटकर खड़ा हो गया जब उसने निरे पत्थर, काठ और काग़ज़ से कथा कहलानी चाही।

पूर्वजों द्वारा संचित धन जिस क़ानून से हमारा हो जाता है, उस तरह से शिल्प पर हमारा अधिकार नहीं होता है, क्योंकि कला होती है, ‘नियतिकृत नियम रहिता’—विधाता के नियमों में भी वह नहीं आना चाहता है।

कला शिल्प का अधिकार ख़ुद अर्जित करना पड़ता है।

बिना रसबोध के रसशास्त्र पढ़ते जाने का जो फल होता है, शिल्प का ज्ञान प्राप्त किए बिना शिल्पचर्चा करने का भी प्रायः वही फल मिलता है।

सारे शिल्प कर्म की एक दिशा होती है और वह है भाव और रस की दिशा।

शिल्प का यह भी एक अनोखा व्यापार है—जैसा-तैसा जो भी माध्यम मिला, उसी पर सवार होकर संसार में जो नहीं है, उसी का जाकर आविष्कार कर डालना।
शिल्प का यह भी एक अनोखा व्यापार है—जैसा-तैसा जो भी माध्यम मिला, उसी पर सवार होकर संसार में जो नहीं है, उसी का जाकर आविष्कार कर डालना।
aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere