अतिथि पर उद्धरण
अतिथि का अभिप्राय है—आगंतुक,
मेहमान, अभ्यागत। ‘अतिथि देवो भवः’ की भारतीय सांस्कृतिक परंपरा में वह अत्यंत सत्कार-योग्य कहा गया है। काव्य में प्रवेश और घर करता अतिथि अपने अर्थ और उपस्थिति का विस्तार करता चलता है।

घर आए अतिथि को प्रसन्न दृष्टि से देखे। मन से उसकी सेवा करे। मीठी और सत्य वाणी बोले। जब तक वह रहे उसकी सेवा में लगा रहे और जब वह जाने लगे तो उसके पीछे कुछ तक जाए- यह सब गृहस्थ का पाँच प्रकार की दक्षिणा से युक्त यज्ञ है।

घर आए व्यक्तियों को प्रेमपूर्ण दृष्टि से देखे, मन से उनके प्रति उत्तम भाव रखे, मीठे वचन बोले तथा उठकर आसन दे। गृहस्थ का सही सनातन धर्म है। अतिथि की अगवानी और यथोचित रीति से आदर सत्कार करे।

आतिथ्य का निर्वाह न करने की मूढ़ता ही धनी की दरिद्रता है। यह बुद्धिहीनों में ही होती है।

जिस गृहस्थ का अतिथि पूजित होकर जाता है, उसके लिए उससे बड़ा अन्य धर्म नहीं है-मनीषी पुरुष ऐसा कहते हैं।


जब कोई अतिथि घर पर आता है तो मैं उससे कह देता हूँ, "यह तुम्हारा ही घर है"।

घर पर आए शत्रु का भी उचित आतिथ्य करना चाहिए। काटने के लिए आए हुए व्यक्ति पर से भी वृक्ष अपनी छाया को हटाता नहीं है।

मुँह टेढ़ा करके देखने मात्र से अतिथि का आनंद उड़ जाता है।

आदर्श अतिथि होने के लिए, घर पर ही रहो।

सच्ची मित्रता के नियम इस सूत्र में अभिव्यक्त हैं- आने वाले अतिथि का स्वागत करो और जाने वाले अतिथि को जल्दी विदा करो।

सुखी है वह मनुष्य जो अतिथि को देखकर कभी मुँह नहीं लटका लेता है, अपितु हर अतिथि का प्रसन्नतापूर्वक स्वागत करता है।

मनुष्य इस संसार में दो दिन का अतिथि है।

जिस गृहस्थ के घर से अतिथि निराश होकर लौट जाता है, वह उस गृहस्थ को अपना पाप देकर उसका पुण्य ले जाता है।

दरिद्रों में दरिद्र वह है जो अतिथि का सत्कार न करे।

ठहरना चाहते अतिथि को जल्दी विदा कर देना और विदा चाहते अतिथि को रोक लेना समान रूप से आपत्तिजनक होते हैं।

अनाहूत अतिथि प्रायः चले जाने के बाद ही सबसे अधिक अभिनंदित होते हैं।

अतिथि कभी भी उस आतिथेय को नहीं भूलता है जिसने उससे सदय व्यवहार किया है।
aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere