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निंदा पर उद्धरण

निंदा का संबंध दोषकथन,

जुगुप्सा, कुत्सा से है। कुल्लूक भट्ट ने विद्यमान दोष के अभिधान को ‘परीवाद’ और अविद्यमान दोष के अभिधान को ‘निंदा’ कहा है। प्रस्तुत चयन उन कविताओं से किया गया है, जहाँ निंदा एक प्रमुख संकेत-शब्द या और भाव की तरह इस्तेमाल किया गया है।

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किसी को ठीक-ठीक पहचानना है तो उसे दूसरों की बुराई करते सुनो। ध्यान से सुनो।

अज्ञेय
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राजन्! दूसरों की निंदा करना या चुग़ली खाना दुष्टों का स्वभाव ही होता है। श्रेष्ठ पुरुष तो सज्जनों के समीप दूसरों के गुणों का ही वर्णन करते हैं।

वेदव्यास
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निर्मल चंद्रमा पर पड़ी पृथ्वी की छाया को लोग चंद्रमा का कलंक कहकर उसे बदनाम करते हैं।

कालिदास
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मनुष्य दूसरे के जिस कर्म की निंदा करे उसको स्वयं भी करे। जो दूसरे की निंदा करता है किंतु स्वयं उसी निद्य कर्म में लगा रहता है, वह उपहास का पात्र होता है।

वेदव्यास
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दूसरों के दोषों का ही जो बखान करता है, उसके दोषों की आलोचना दूसरे करेंगे, और वह निंदित होगा।

तिरुवल्लुवर
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जिस जिस उपाय से धर्म का आचरण हो सके, उसे करने में निंदा की बात नहीं है।

वेदव्यास
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किसी की निंदा नहीं करनी चाहिए और उसे किसी प्रकार सुनना ही चाहिए। यदि कोई दूसरे की निंदा करता हो तो वहाँ अपने कान बंद कर ले अथवा वहाँ से उठकर अन्यत्र चला जाए।

वेदव्यास
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आश्रित की दुर्बलता से आश्रय की निंदा होती है।

वेदव्यास
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मूर्ख मनुष्य विद्वानों को गाली और निंदा से कष्ट पहुँचाते हैं। गाली देने वाला पाप का भागी होता है और क्षमा करने वाला पाप से मुक्त हो जाता है।

वेदव्यास
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पुरुष जब बिस्तर में बेकार हो जाए, बेरोज़गार हो जाए, बीमार हो जाए तो पत्नी को सारे सच्चे-झूठे झगड़े याद आने लगते हैं। तब वह आततायी बन जाती है। उसके सर्पीले दाँत बाहर निकल आते हैं।

स्वदेश दीपक
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प्रत्येक व्यक्ति की बात सुनो परंतु किसी से भी कुछ मत कहो। प्रत्येक व्यक्ति द्वारा निंदा सुन लो पर अपना निर्णय सुरक्षित रखो।

विलियम शेक्सपियर
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मुझसे पहले की पीढ़ी में जो अक़्लमंद थे, वे गूँगे थे। जो वाचाल थे, वे अक़्लमंद नहीं थे।

विजय देव नारायण साही
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सुंदर औरत नादिरशाही होती है। एक-एक करके सब कुछ लूटती है।

स्वदेश दीपक
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स्त्री उन पुरुषों के साथ फ़्लर्ट करती है, जो उससे विवाह नहीं करते और उस पुरुष के साथ विवाह करती है, जो उसके साथ फ़्लर्ट नहीं करता।

भुवनेश्वर
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मैं माता पिता की तुलना में निंदक का अधिक स्नेह मानता हूँ। विचार करके देखिए—माता पिता तो हमारे मलमूत्र को हाथ से धोते हैं, किंतु निंदक तो जीभ से हमारे मलमूत्र को धोते हैं।

दयाराम
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महफ़िल में पीना दूसरे दर्जे का पीना है, महफ़िल के लिए लिखना दूसरे दर्जे का लिखना।

कृष्ण बलदेव वैद
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जो महापुरुषों की निंदा करता है, वही नहीं, अपितु जो उस निंदा को सुनता है, वह भी पाप का भागी होता है।

कालिदास
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तुम बर्फ़ के समान विशुद्ध रहो और हिम के समान पवित्र, तो भी लोकनिंदा से नहीं बचोगे।

विलियम शेक्सपियर
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प्रशंसा का अधिकांश भाप बनकर उड़ जाने के लिए ही बना होता है।

सिद्धेश्वर सिंह
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लोकापवाद बलवान होता है।

कालिदास
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तीन दिन के वासना-प्रवाह में स्त्री बह जाती है और तीन वर्ष के एकांगी प्रेम पर वह एकांत में हँसती है।

भुवनेश्वर
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लोकनिंदा भी कभी राजदंड से दबती है? दबाने पर तो ज्वालामुखी की तरह उसका विस्फोट होता है।

लक्ष्मीनारायण मिश्र
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निंदा का उद्गम ही हीनता और कमज़ोरी से होता है।

हरिशंकर परसाई
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औरत एक छोटा-सा सुख तो देती है, लेकिन दुख बहुत लंबा देती है। प्रभुजी का बनाया विनाशकारी जीव। उसका घातक सौंदर्य पहले हमें बाँध लेता है, फिर सर्वनाश कर देता है।

स्वदेश दीपक
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सज्जनों की निंदा करने में दुष्ट सब ओर से आँख, कान, सिर मुख वाला होता है और सर्वत्र व्याप्त भी होता है।

क्षेमेंद्र
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ख़राब किया जा रहा मनुष्य आज जगह-जगह दिखाई देता है।

मंगलेश डबराल
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इस लज्जित और पराजित युग में कहीं से ले आओ वह दिमाग़ जो ख़ुशामद आदतन नहीं करता।

रघुवीर सहाय
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दोहरी ज़िंदगी की सुविधाओं से मुझे प्रेम नहीं है।

राजकमल चौधरी
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यदि प्रसिद्धि प्राप्त व्यक्ति निंदा का विषय बनते हैं तो साथ ही चापलूसी का भी। यदि उनकी ऐसी निंदाएँ भी की जाती है जो अनुचित हैं, तो उसी प्रकार उनकी ऐसी प्रशंसाएँ भी तो की जाती हैं जिनके वे पात्र नहीं हैं।

थॉमस एडिसन
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स्त्री के ज्ञानकोश में आमोद-प्रमोद का केवल एक अर्थ है; वह करना, जो उसे नहीं करना चाहिए।

भुवनेश्वर
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एक विशुद्ध कवि जब सहवास कराता है तो ‘निराला’ हो जाता है। ‘जुही की कली’ और ‘राम की शक्ति-पूजा’। एक महान् कवि सहवास कराता है तो मैथिलीशरण गुप्त हो जाता है। राष्ट्रकवि हमेशा अप्रामाणिक होते हैं।

स्वदेश दीपक
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यदि स्वयं को यह पता चल सके कि कमज़ोर कड़ी कहाँ है तो प्रसिद्ध होना बहुत आसान हो जाता है।

सिद्धेश्वर सिंह
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हिंदुस्तानी डाकख़ाना एक डरावनी जगह है। उस माहौल में काम करने वाले बाबू पागल क्यों नहीं हो जाते?

कृष्ण बलदेव वैद
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हिंदी के हैड हमेशा कवि-आलोचक होते हैं।

स्वदेश दीपक
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मंच-संचालक बन जाने से कोई मूर्ख विद्वान नहीं बन जाता।

स्वदेश दीपक
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साहित्य अकादेमी का माहौल मुझे हमेशा असाहित्यिक लगा है।

कृष्ण बलदेव वैद
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कल शाम एक असाहित्यिक भीड़ में गुज़री। कुछ चेहरे अजनबी। नुमाइश। औरतें बहुत थीं। सब मोटी। सजी-धजी लदी-फदी भैंसें। कामुकता ग़ायब। उसकी जगह पैसे ने ले ली है। आदमी भी ऐसे जिनके लिंग लापता हों। लिंगहीन लोथड़े। जहाँ पैसा और जायदाद हावी हो जाएँ, वहाँ सेक्स ग़ायब हो जाता है। लच्चरपन अलबत्ता बचा रहता है। ख़ूबसूरती आराइश के नीचे दब जाती है, ख़ून पानी में बदल जाता है, वीर्य साबुनी झाग में।

कृष्ण बलदेव वैद

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere