एरिक फ़्रॉम की संपूर्ण रचनाएँ
उद्धरण 14

प्रेम व्यक्ति के भीतर एक सक्रिय शक्ति का नाम है। यह वह शक्ति है जो व्यक्ति और दुनिया के बीच की दीवारों को तोड़ डालती है, उसे दूसरों से जोड़ देती है।
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प्रेम ‘करने’ का मतलब है अपने आपको बिना किसी शर्त के समर्पित कर देना, अपने आपको पूरी तरह दूसरे को सौंप देना—इस उम्मीद के साथ कि हमारा प्रेम उसके अंदर भी प्रेम पैदा करेगा।
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अगर एक व्यक्ति सिर्फ़ दूसरे एक व्यक्ति से प्रेम करता है, और अन्य सभी व्यक्तियों में उसकी ज़रा भी रुचि नहीं है—तो उसका प्रेम प्रेम न होकर मात्र एक समजैविक जुड़ाव भर है, उसके अहं का विस्तार भर है।
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अपने सार-तत्व में सभी मनुष्य एक जैसे ही हैं। हम सभी एक ही इकाई के हिस्से हैं; हम सभी एक ही इकाई हैं। इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि हम किससे प्रेम करते हैं। प्रेम एक तरह का संकल्प है—अपना जीवन पूरी तरह से एक दूसरे व्यक्ति के जीवन को समर्पित कर देने का।
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प्रेम एक पर्याप्त ‘यौन-संतुष्टि का परिणाम’ क़तई नहीं है। उल्टे यौन-सुख—और तथाकथित यौन-तकनीकों का ज्ञान भी—‘प्रेम का परिणाम’ होता है।
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