दर्पण पर उद्धरण
दर्पण, आरसी या आईना
यों तो प्रतिबिंब दिखाने वाला एक उपयोगी सामान भर है, लेकिन काव्यात्मक अभिव्यक्ति में उसका यही गुण विशेष उपयोगिता ग्रहण कर लेता है। भाषा ने आईने के साथ आत्म-संधान के ज़रूरी मुहावरे तक गढ़े हैं। इस चयन में प्रस्तुत है दर्पण को महत्त्व से बरतती कुछ कविताओं का संकलन।

चलते हुए, पानी की तरह बनो। स्थिर हो, तो दर्पण की तरह बनो। प्रतिध्वनि की तरह उत्तर दो।

दर्पण में उसकी छवि को देख कर एक ख़ूबसूरत महिला पूरी तरह से मान सकती है कि छवि उसकी ही है। एक बदसूरत महिला जानती है कि ऐसा नहीं है।

कला हमारे विश्वासघाती आदर्शों का दर्पण है।

दर्पण और संभोग घिनौने होते हैं, क्योंकि वे मनुष्यों की संख्या में वृद्धि करते हैं।

कुरूप व्यक्ति जब तक दर्पण में अपना मुँह नहीं देख लेता, तब तक वह अपने को दूसरों से अधिक रूपवान समझता है।

जो सहृदयता दर्पण में अपना मुख निरखती है, पत्थर बन जाती है। और सत्क्रिया जो अपने को सुंदर नामों से संबोधित करती है, अभिशाप की जननी बन जाती है।

अगर आपका चेहरा टेढ़ा है तो दर्पण को दोष देने का कोई लाभ नहीं है।

आइनों को प्रतिबिबित होने के पहले बहुत सोचना चाहिए।

यथार्थ का दर्पण जिस प्रकार जगत की बाह्य परिस्थितियाँ हैं, उसी प्रकार आदर्श का दर्पण मनुष्य के भीतर का मन है।
aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere