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विनोबा भावे

1895 - 1982 | महाराष्ट्र

विनोबा भावे की संपूर्ण रचनाएँ

उद्धरण 5

कोई भी कर्म जब इस भावना से किया जाता है कि वह परमेश्वर का है तो मामूली होने पर भी पवित्र बन जाता है।

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कर्म वही, परंतु भावना-भेद से उसमें अंतर पड़ जाता है। परमार्थी मनुष्य का कर्म आत्म-विकासक होता है, तो संसारी मनुष्य का कर्म आत्म-बंधक सिद्ध होता है।

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कर्त्तव्यहीनता से कर्त्तव्य श्रेष्ठ है। पर कर्त्तव्य से अकर्तव्य श्रेष्ठ।

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यदि चित्त एकाग्र रहेगा, तो फिर सामर्थ्य की कभी कमी पड़ेगी। साठ वर्ष के बूढ़े होने पर भी किसी नौजवान की तरह तुममें उत्साह और सामर्थ्य दीख पड़ेगी।

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कलियुग कहने वाले को तो 'अंध श्रद्धालु' समझकर आप हँसते हैं, पर पश्चिम वाले कल-युग कहते हैं, तो आप भी कहते हैं। काल हमारी इच्छा और प्रयत्न के अनुरूप बनेगा। काल को मोड़ने की सामर्थ्य तो आपके दृढ़ निश्चय में है।

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