ग़रीबी पर उद्धरण
ग़रीबी बुनियादी आवश्यकताओं
के अभाव की स्थिति है। कविता जब भी मानव मात्र के पक्ष में खड़ी होगी, उसकी बुनियादी आवश्यकताएँ और आकांक्षाएँ हमेशा कविता के केंद्र में होंगी। प्रस्तुत है ग़रीब और ग़रीबी पर संवाद रचती कविताओं का यह चयन।

निस्संदेह मैं तो हिंदू युवकों को वीरों और हुतात्माओं के उस गौरवमय पागलखाने में प्रविष्ट कराना चाहता हूँ जहाँ त्याग को लाभ, ग़रीबी को अमीरी और मृत्यु को जीवन समझा जाता है। मैं तो ऐसे पक्के और पवित्र पागलपन का प्रचार करता हूँ। पागल! हाँ, मैं पागल हूँ। मैं ख़ुश हूँ कि मैं पागल हूँ।

इतिहासकार को हरेक के साथ न्याय करने का अपना मिशन कभी भूलना नहीं चाहिए। निर्धन और संपत्तिवान सब उसकी क़लम के आगे बराबर हैं; उसके सामने किसान अपनी दरिद्रता की भव्यता के साथ उपस्थित होता है, और धनवान अपनी मूर्खता की क्षुद्रता के साथ।

संसार में शरीरधारियों की दरिद्रता ही मृत्यु है और न ही आयु है।

दरिद्रनारायण के दर्शन करने हों, तो किसानों के झोंपड़ों में जाओ।


ईश्वर का सबसे अच्छा नाम दरिद्रनारायण है।

जो केवल ऐश्वर्य के पालने में पले हैं, वे ग़रीबों के दुःखों को नहीं जान सकते।

जगत् में प्रायः धनवानों में खाने और पचाने की शक्ति नहीं रहती है और दरिद्रों के पेट में काठ भी पच जाता है।


ग़रीबी में मनुष्य जितना बनता है, उतना अमीरी में नहीं बनता।


निर्धन अनुभव करने में ही निर्धनता है।

आलसी सोने वाले मनुष्य को दरिद्रता प्राप्त होती है तथा कार्य-कुशल मनुष्य निश्चय ही अभीष्ट फल पाकर ऐश्वर्य का उपभोग करता है।

क़ानून निर्धन को पीसते हैं और धनवान क़ानून पर शासन करते हैं।

सबसे बड़ी बुराई तथा निकृष्टतम अपराध निर्धनता है।

दरिद्रता सब पापों की जननी है तथा लोभ उसकी सबसे बड़ी संतान है।

ग़रीबी की ज़िल्लत नहीं रहती, अगर अजनबियों में ज़िंदगी बसर की जाए। यह जानने-पहचानने वालों की कर्नाखयाँ और कनबतियाँ हैं जो ग़रीबी को यंत्रणा बना देती हैं।

जिनका धन समान है, जिनकी विद्या एक सी है, उन्हीं में विवाह और मंत्री का संबंध हो सकता है। धनवान और निर्धन में कभी मित्रता नहीं हो सकती।

यदि तुम्हारे पास धन हैं, तो निर्धनों को बाँट दो। यदि धन पर्याप्त नही है तो मन की भेंट दो। यदि मन ठोक नहीं है तो तन अर्पित करो। यदि तन भी स्वस्थ नहीं है तो मीठे वचन ही बोलो। परंतु तुम्हें कुछ न कुछ देना ही है और परोपकार के लिए अवश्य ही स्वयं को न्यौछावर करना है।

मैं किसानों को भिखारी बनते नहीं देखना चाहता। दूसरों की मेहरबानी से जो कुछ मिल जाए, उसे लेकर जीने की इच्छा की अपेक्षा अपने हक़ के लिए मर-मिटना मैं ज़्यादा पसंद करता हूँ।

निर्धनता मनुष्य में चिंता उत्पन्न करती है, दूसरों से अपमान कराती है, शत्रुता उत्पन्न करती है, मित्रों में घृणा का पात्र बनाती है और आत्मीय जनों से विरोध कराती है। निर्धन व्यक्ति की घर छोड़कर वन चले जाने की इच्छा होती है, उसे स्त्री से भी अपमान सहना पड़ता है। ह्रदयस्थित शोकाग्नि एक बार ही जला नहीं डालती अपितु संतप्त करती रहती है।


अभाव में, ग़रीबी में, दुःख में, परेशानी में आदमी जो कुछ करता है, उससे उसका मूल्यांकन नहीं किया जाता, यह उसके प्रति अन्याय है।

कवि के घर निर्धनता से अकाल नहीं पड़ता। वह तो पड़ता है, नीरसता का मौसम आ जाने पर।

निर्धनों की आवश्यकताओं और कठिनाइयों को अमीर कभी नहीं समझ सकते।

जनता ग़रीबी से उबरने का रास्ता पूछती है, सरकार उसके हाथ में 'निरोध' का पैकेट थमा देती है।
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दरिद्रनारायण का अर्थ है ग़रीबों का ईश्वर, ग़रीबों के हृदय में निवास करने वाला ईश्वर। इस नाम का प्रयोग दिवंगत देशबंधु दास ने एक बार सत्य-दर्शन के पावन क्षणों में किया। इस नाम को मैंने अपने अनुभव से नहीं गढ़ा है बल्कि यह मुझे देशबंधु से विरासत के रूप में प्राप्त हुआ है।

सुख की अवस्था से जो दरिद्रता की दशा को प्राप्त होता है, वह तो शरीर से जीवित रहते हुए भी मृतक के समान ही जीता रहता है।

'दरिद्रता के विरुद्ध युद्ध' वायदों में, राजनीति में, प्रेस-वक्तव्यों में प्रथम परंतु क्रियान्वयन में सबसे अंतिम रहा है।


आक्रोश ग़रीबी का सबसे क़ीमती फूल है।

राजन्! श्रुति है कि दर्प अधर्म के अंश से उत्पन्न संपत्ति का पुत्र है। उस दर्प ने बहुत से देवताओं और असुरों को नष्ट कर दिया है।



ग़ुरबत और ग़लाज़त दो बहनें : दुनिया भर में।

दरिद्रता अभिशाप है और वरदान भी। वह व्यक्ति रूप में एक विशिष्ट समय तक तुम्हारा परिसंस्कार करती है—पर यह अवधि दीर्घ नहीं होनी चाहिए।



निर्धनता से लज्जा होती है, लज्जित मनुष्य तेज़हीन हो जाता है, निस्तेज लोक से तिरस्कृत होता है, तिरस्कार से ग्लानि को प्राप्त होता है, ग्लानि होने पर शोक उत्पन्न होता है। शोकातुर होने से बुद्धि क्षीण हो जाती है और बुद्धिरहित होने से मनुष्य नाश को प्राप्त होता है। अहो! निर्धनता सभी विपत्तियों की जड़ है।


ग़रीबों की जीर्ण-शीर्ण कुटी ही एक-एक तीर्थं है, एक-एक पुण्याश्रम है।

दुर्दिन में मन के कोमल भावों का सर्वनाश हो जाता है और उनकी जगह कठोर एवं पाशविक भाव जागृत हो जाते हैं।

ग़रीबों में अगर ईर्ष्या या बैर है तो स्वार्थ के लिए या पेट के लिए। ऐसी ईर्ष्या या बैर को मैं क्षम्य समझता हूँ।


दरिद्रता के दुःख को याचना से दूर करने के अज्ञान से बढ़कर अज्ञान और कोई नहीं है।

भोलेपन से युक्त हँसमुख स्वभाव, सौंदर्य को आकर्षक, ज्ञान को आनंदप्रद, और वाग्विदग्धता को प्रिय बना देता है। यह बीमारी, निर्धनता और वेदना को हलका कर देता है, अज्ञान को प्रिय सरलता में बदल देता है और विकृति को रुचिकर बना देता है।

यदि पूछा जाए कि दरिद्रता के समान दुखद वस्तु क्या है तो कहना होगा कि दरिद्रता के समान दुखद वस्तु दरिद्रता ही है।

दरिद्रता का होना एक अन्यायपूर्ण तथा कुव्यवस्थित समाज का प्रमाण है और हमारी सार्वजनिक दानशीलता केवल एक डाकू के विवेक का प्रथम और धीमा जागरण है।

यद्यपि दानशीलता और अभिमान के उद्देश्य भिन्न-भिन्न हैं, फिर भी दोनों ग़रीबों का पोषण करते हैं।
aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere