आज के युग में हमारे समान व्यक्ति के लिए अपने अस्तित्व की रक्षा कर लेना ही ऐसी ज़िम्मेदारी हो गई है। कि सत्य बचा या नहीं, धर्म की रक्षा हो पाई या नहीं, यह ध्यान हम रखें कब?
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जन्म के बाद से मनुष्य लगातार मृत्यु की तरफ बढ़ता रहता है। बीच के ये दो दिन ही उसके कर्म के होते हैं। यह कर्म वह किस तरह करता है, इसी पर उसका मूल्यांकन किया जाता है।
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राजनीति से देश का कल्याण न होगा, धर्म का डंका पीटने से भी कुछ न होगा, अर्थनीति से भी अपनी कमी दूर न होगी जन्मभूमि पर प्रेम हो—जीवंत प्रेम। वह प्रेम आत्मा, संपत्ति और संतान से भी बड़ा हो—जिस प्रेम से छोटे-बड़े सब को एक नज़र से देखा जा सके।
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अभाव में, ग़रीबी में, दुःख में, परेशानी में आदमी जो कुछ करता है, उससे उसका मूल्यांकन नहीं किया जाता, यह उसके प्रति अन्याय है।
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मृत्यु से ही जीवन को पूर्ण रूप से प्राप्त करना पड़ता है। मृत्यु से ही सार्थकता के चरम लक्ष्य तक पहुँचा जा सकता है।
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