ऐक्य-बोध का उपदेश जिस गंभीरता से उपनिषदों में दिया गया है, वैसा किसी दूसरे देश के शास्त्रों में नहीं मिलता।
किसी स्त्री ने न्यायसूत्र या वात्स्यायनभाष्य जैसा कोई शास्त्रग्रंथ रचा हो, ऐसा प्रमाण नहीं मिलता। उपनिषत्काल के बाद शास्त्रार्थ में स्त्री विस्मृत हाशिए पर है। किसी कोने से उसकी आवाज सुनाई देती है, पर वह जब कभी अपने अवगुंठन से बाहर निकल कर आती है तो एक विकट चुनौती सामने रखती है और दुरंत प्रश्न उठाती है।
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डर यही है कि अपनी श्रेष्ठता, पुण्य या धन के अभिमान से हमारा दान अपमानित न हो, अधर्म में परिणत न हो। इसीलिए उपनिषद् में कहा है ‘भ्रिया देयम्’—भय करते हुए दान दो।
उपनिषद् भारतीय ब्रह्मज्ञान की वनस्पति है।
सत्य ही मनुष्य का प्रकाश है। इस सत्य के विषय में उपनिषद् का कहना है : 'आत्मवत् सर्वभूतेषु यः पश्यति।'
बृहदारण्यक उपनिषद् में; याज्ञवल्क्य के साथ जनक की सभा में, उस समय के सबसे बड़े ज्ञानियों के साथ बहस को गार्गी ने ब्रह्मोद्य कहा है।
गार्गी ब्रह्मवादिनी थी। उपनिषदों में ही स्त्रियाँ ब्रह्मवादिनी हुआ करती थीं।
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उपनिषदों के काल के ब्रह्मज्ञानी, किसी महिला से यह कहने की बात कभी मन में भी न लाते कि हे अबले! यशस्वी लोग महिलाओं से वाद नहीं करते।
याज्ञवल्क्य की वाणी में ज्ञान की गरिमा ही नहीं, तपे हुए अनुभव का सच भी था।
कभी-कभी यह भी हुआ कि परवर्ती ग्रंथकारों ने किसी विचारधारा विशेष या संप्रदाय विशेष के प्रचार के लिए ग्रंथ लिखा और उसे लोकप्रिय बनाने के लिए उपनिषद् का नाम दे दिया।
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संहिता, ब्राह्मण और आरण्यकों से सीधे संबंध को देखते हुए बारह उपनिषद् प्राचीन और प्रामाणिक कहे जा सकते हैं।
उपनिषद् बोलचाल की भाषा में जीवन के गूढ़ रहस्यों का निरूपण करते हैं।
aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere