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स्वार्थ पर दोहे

हरे चरहिं तापहिं बरे, फरें पसारहिं हाथ।

तुलसी स्वारथ मीत सब, परमारथ रघुनाथ॥

वृक्ष जब हरे होते हैं, तब पशु-पक्षी उन्हें चरने लगते हैं, सूख जाने पर लोग उन्हें जलाकर तापते हैं और फलने पर फल पाने के लिए लोग हाथ पसारने लगते हैं (अर्थात् जहाँ हरा-भरा घर देखते हैं, वहाँ लोग खाने के लिए दौड़े जाते हैं, जहाँ बिगड़ी हालत होती है, वहाँ उसे और भी जलाकर सुखी होते हैं और जहाँ संपत्ति से फला-फूला देखते हैं, वहाँ हाथ पसार कर मांगने लगते हैं)। तुलसी कहते है कि इस प्रकार जगत में तो सब स्वार्थ के ही मित्र हैं। परमार्थ के मित्र तो एकमात्र श्री रघुनाथ जी ही हैं।

तुलसीदास

जरउ सो संपत्ति सदन, सुख सुहृद मातु पितु भाइ।

सनमुख होत जो रामपद, करइ सहस सहाइ॥

वह संपत्ति, घर, सुख, मित्र, माता-पिता और भाई आदि सब जल जाएँ, जो श्री राम के चरणों के सम्मुख होने में हँसते हुए (प्रसन्नतापूर्वक) सहायता नहीं करते।

तुलसीदास

मुह देखे का प्यार है, देखा सब संसार।

पैसे दमरी पर मरे, स्वार्थी सब व्यवहार॥

निपट निरंजन

सुआरथ के सब मीत रे, पग-पग विपद बढ़ाय।

पीपा गुरु उपदेश बिनुं, साँच जान्यो जाय॥

संत पीपा

नमूं तो गुरु अर राम कुँ, भव इतराते पार।

पीपा नमें आन कुँ, सुवारथ रो संसार॥

संत पीपा

संग सखा सब तजि गये, कोउ निबहिओ साथ।

कहु नानक इह विपत में, टेक एक रघुनाथ॥

गुरु तेग़ बहादुर

निज करि देखिओ जगत में, कोइ काहु को नाहिं।

नानक थिर हरि भक्ति है, तिह राखो मन माहिं॥

गुरु तेग़ बहादुर

स्वारथ प्यारो कवि उदै, कहै बड़े सो साँच।

जल लेवा के कारणे, नमत कूप कूँ चाँच॥

उदयराज जती

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere