
सबको अपने किए का फल भोगना पड़ता है—व्यक्ति को भी, जाति को भी, देश को भी।

हे निशाचर! जैसे विषमिश्रित अन्न का परिणाम तुरंत ही भोगना पड़ता है, उसी प्रकार लोक में किए गए पापकर्मों का फल भी शीघ्र ही मिलता है।

न देने पर (कन्यादान न करने से) तो लज्जा आती है और विवाह कर देने पर मन दुखी होता है। इस प्रकार धर्म और स्नेह के बीच में पड़कर माताओं को बड़ा कष्ट होता है।

जो मोहवश अपने हित की बात नहीं मानता है, वह दीर्घसूत्री मनुष्य अपने स्वार्थ से भ्रष्ट होकर केवल पश्चाताप का भागी होता है।

लोक की हँसी सहने वाले ही लोक का निर्माण करते हैं।

अत्यंत कष्ट की दशा में भी प्राणियों की प्रवृत्तियाँ जीवन की आशा का परित्याग नहीं कर पातीं।


पीड़ित आत्मा को उल्लास प्रभावित नहीं कर सकता।

यौवन का आरंभ होते ही कन्याओं के पिता संताप-अग्नि के ईंधन बन जाते हैं।

विनय और कष्ट सहने का अभ्यास रखते हुए भी अपने को किसी से छोटा न समझना चाहिए और बड़ा बनने का घमण्ड अच्छा नहीं होता।

जान पड़ता है कि आदमी का रास्ता सीधा और सुगम नहीं है। वह कर्दम-कंटक का है और ठोकर और घाव खा खाकर ही आदमी सीखता और बढ़ता है।
aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere