ग़ुलामी पर कविताएँ

ग़ुलामी मनुष्य की स्वायत्तता

और स्वाधीनता का संक्रमण करती उसके नैसर्गिक विकास का मार्ग अवरुद्ध करती है। प्रत्येक भाषा-समाज ने दासता, बंदगी, पराधीनता, महकूमी की इस स्थिति की मुख़ालफ़त की है जहाँ कविता ने प्रतिनिधि संवाद का दायित्व निभाया है।

उठ जाग मुसाफ़िर

वंशीधर शुक्ल

जुमला

रचित

हाथी

वीरेन डंगवाल

अफ़्रीक़ा

मिर्ज़ो तुर्सुनज़ादे

एक शाम

हिजम इराबत सिंह

खूँटा

शुभम् आमेटा

खूँटे से बँधे हुए

रामकृष्ण झा ‘किसुन’

ज़ंजीरें

कुमार अम्बुज

भारोत्तोलन

अविनाश मिश्र

सहायिका

सुलोचना

वे चाहते हैं

गौरव भारती

रेशम की साड़ी

आलोक आज़ाद

मैं

समर्थ वाशिष्ठ

वजूद

सुषमा सिंह

बकरामंडी

उद्भ्रांत

उनकी भाषा

कल्पना पंत

मुझे याद आ गए सुकरात

नित्यानंद गायेन

पराजय-गीत

बालकृष्ण शर्मा नवीन

लूप

धीरेंद्र

मालिक होने की माँग

शिवमंगल सिद्धांतकर

मूल्य-अंकन

प्रखर शर्मा

ग़ुलाम

सोमदत्त

गाए गए गीत

राजकुमार केसवानी

बकरा

नित्यानंद गायेन

राखी की सुध

बालकृष्ण शर्मा नवीन

पिंजरे में

अमेय कांत

कुत्ता

हरि मृदुल

घोड़ा

नरेश अग्रवाल

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere