ग़ुलामी पर उद्धरण
ग़ुलामी मनुष्य की स्वायत्तता
और स्वाधीनता का संक्रमण करती उसके नैसर्गिक विकास का मार्ग अवरुद्ध करती है। प्रत्येक भाषा-समाज ने दासता, बंदगी, पराधीनता, महकूमी की इस स्थिति की मुख़ालफ़त की है जहाँ कविता ने प्रतिनिधि संवाद का दायित्व निभाया है।

नीग्रो अपनी हीनता से ग़ुलाम है, श्वेत व्यक्ति अपनी श्रेष्ठता से ग़ुलाम है… दोनों ही एक विक्षिप्त उन्मुखीकरण के अनुसार व्यवहार करते हैं।

अराजकता का इलाज स्वतंत्रता है न कि दासता, वैसे ही जैसे अंधविश्वास का सच्चा इलाज नास्तिकता नहीं, धर्म है।

ग़ुलाम का न दीन है न धर्म है, ग़ुलाम के न रहीम है, न राम हैं।

जो व्यक्ति स्वयं अपने सम्मान का ख़्याल नहीं करता वह दास ही बन जाता है।

हम सभी कम या अधिक अभिमतों के दास हैं।

हमेशा की तरह आज भी लोगों को दो समूहों में वर्गीकृत किया जा सकता है—ग़ुलाम और आज़ाद। वह इंसान जिसके दिन का दो-तिहाई भाग उसका अपना नहीं है वह ग़ुलाम है, चाहे वह राजनेता हो, व्यवसायी हो, अधिकारी हो या कोई विद्वान हो।

विडंबना दासों की महिमा है।
aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere