शरत चंद्र चट्टोपाध्याय के उद्धरण

अभाव पर विजय पाना ही जीवन की सफलता है। उसे स्वीकार करके उसकी ग़ुलामी करना ही कायरपन है।
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जब देश में कोई विशेष नियम प्रतिष्ठित होता है, तब वह एक ही दिन में नहीं, बल्कि बहुत धीरे-धीरे संपन्न हुआ करता है। उस समय वे लोग पिता नहीं होते, भाई नहीं होते, पति नहीं होते-होते हैं केवल पुरुष। जिन लोगों के संबंध में वे नियम बनाए जाते है, वे भी आत्मीया नहीं होती, बल्कि होती हैं केवल नारियाँ।

यदि समग्र भाव से समस्त नारी जाति के दुःख-सुख और मंगल-अमंगल की तह में देखा जाए, तो पिता, भाई और पति की सारी हीनताएँ और सारी धोखेबाज़ियाँ क्षण भर में ही सूर्य के प्रकाश के समान आप से आप सामने आ जाती हैं।

यथार्थ प्यार करने में स्त्रियों की शक्ति और साहस पुरुष से कहीं अधिक है। वे कुछ नहीं मानतीं। पुरुष जहाँ भय विह्वल हो जाते हैं, स्त्रियाँ वहाँ स्पष्ट बातें उच्च स्वर से घोषित करने में दुविधा नहीं करतीं।

प्राण स्वयं आपके अपने हैं। यदि आप चाहें तो अपने प्राण दे सकते हैं, लेकिन आपकी जो यह धारणा है कि स्त्री आपकी संपत्ति है, आप उसके स्वामी होने के कारण इच्छा होने पर अथवा आवश्यकता समझने पर उसके नारी धर्म पर भी अत्याचार कर सकते हैं, उसे जीती भी रख सकते हैं और मार भी सकते हैं और उसे वितरित भी कर सकते हैं, तो यह आपका अनधिकार है।

नारी के लिए पति परम पूजनीय व्यक्ति है। सबसे बड़ा गुरुजन है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि स्त्री पुरुष की दासी है। यह संस्कार नारी को जितना छोटा, जितना तुच्छ कर देता है, उतना और कुछ नहीं।

नारियों का सम्मान स्वयं उनके कारण नहीं होता, बल्कि वह उनकी संतान और पुत्र प्रसव पर निर्भर करता है।
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नारी के सच्चे रूप का दर्शन कितनी बड़ी दुर्लभ वस्तु है, इस बात को जगत के अधिकांश लोग जानते ही नहीं।

पुरुषों का क्षणिक दुःख तो क्षण भर में ही जाता है, लेकिन जिसे सदा दुःख सहना पड़ता है वह है नारी।

पति को जिस स्त्री ने हृदय से धर्म के रूप में विचारन नहीं सीखा, उसके पैरों की जंजीर चाहे हमेशा बँधी हो रहे चाहे खुल जाए और अपने सतीत्व के जहाज़ को वह चाहे जितना भी बड़ा क्यों न समझती हो, परीक्षा के दलदल में पड़ने पर उसे डूबना ही पड़ेगा। वह पर्दे के अंदर भी डूबेगी और बाहर भी डूबेगी।

अपने हाथ से अपने आदमियों की सेवा और यत्न करने में कितनी तृप्ति होती है, कितना आनंद मिलता है, यह स्त्री जाति के सिवा और कोई नहीं समझ सकता।

संसार में जो लोग बड़े काम करने आते हैं, उनका व्यवहार हमारे समान साधारण लोगों के साथ यदि अक्षर-अक्षर न मिले, तो उन्हें दोष देना असंगत है, यहाँ तक कि अन्याय है।
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विधाता को दोष देती हूँ कि उन्होंने क्यों इतने कोमल और जल के समान तरल पदार्थ से नारी का हृदय गढ़ा था।
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जो लोग दोनों आँखें खोले हुए देखते हैं, लेकिन वास्तव में देख नहीं पाते, उन्हीं के कारण सारी गड़बड़ी है। वे आप भी ठगे जाते हैं और दूसरों को भी ठगने से बाज़ नहीं आते।
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भगवान कितना अधिक दुःख-कष्ट मनुष्य को देते हैं, तब उसे सच्ची मानवता तक पहुँचा देते हैं।
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धर्मवस्तु को एक दिन हम लोगों ने जैसे दल बाँधकर मतलब गाँठकर पकड़ना चाहा था, वैसे उसे नहीं पकड़ा जा सकता। ख़ुद पकड़ाई दिए बग़ैर शायद उसे पाया ही नहीं जा सकता। परम दुःख की मूर्ति के रूप में जब वह मनु्ष्य की चरम वेदना की धरती पर पैर रखकर अकेला आ खड़ा हो, तब तो उसे पहचान ही लेना चाहिए। ज़रा भी भूल-भ्राँति उससे सही नहीं जाती, ज़रा में मुँह फेरकर लौट जाता है।


जान में हो या अंजान में, संसार में ग़लती करने पर उसका दंड भोगना ही पड़ता है।
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संबंधित विषय : संसार
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लड़ाई-झगड़ा, वाद-विवाद और होड़ा-होड़ी करके चाहे जो चीज़ मिल जाए पर धर्म जैसी चीज़ नहीं मिल सकती।
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दुःसमय में जब मनुष्य को आशा और निराशा का कोई किनारा नहीं दिखाई देता तब दुर्बल मन डर के मारे आशा की दिशा को ही ख़ूब कस कर पकड़े रहता है।

जिसे कुछ आशा है, वह एक तरह से सोचता है और कोई आशा नहीं होती, वह कुछ और ही प्रकार से सोचता है। पूर्वोक्त चिंता में सजीवता है, सुख है, तृप्ति है, दुःख है और उत्कंठा है। इसलिए वह मनुष्य को श्रांत कर देती है—वह अधिक समय तक नहीं सोच सकता। लेकिन आशाहीन को न तो सुख है, न दुःख है, न उत्कंठा है, फिर भी तृप्ति है।

जीवन के अज्ञात पथ में मनुष्य के साथ मनुष्य का गहरा परिचय कब किस दिन किस माध्यम से कैसे हो जाता यह कोई नहीं जानता।
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पति को जो वास्तव में धर्म समझकर, परलोक की वस्तु समझकर ग्रहण कर सकी है, उसके पैरों की बेड़ी चाहे तोड़ दी और चाहे बंधी रहने दी, उसके सतीत्व की परीक्षा अपने-आप हो ही गई, समझ लो।
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जो परिहास का उत्तर नहीं दे सकता, वह हँसता हुआ कम से कम रस तो ले सकता है।
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संबंधित विषय : हँसना
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पहले से समझ में नहीं आता, इसी से तो उसे भविष्य कहा जाता है।
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संबंधित विषय : भविष्य
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कोई भी क्यों न हो, जिसका कार्य-कारण हमें नहीं मालूम, उसे अगर हम क्षमा न भी कर सकें, तो उसका विचार करके कम-से-कम उसे अपराधी तो नहीं ठहरावें।
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जीवन में उम्र के साथ-साथ जो वस्तु मिलती है, उसका नाम है अनुभव। केवल पुस्तकें पढ़कर इसे नहीं पाया जा सकता। और न पाने तक इसका मूल्य नहीं मालूम होता। लेकिन इस बात को भी याद रखना चाहिए कि अनुभव, दूरदर्शिता आदि केवल शक्ति प्रदान ही नहीं करते, शक्ति का हरण भी करते हैं।