जंगल पर उद्धरण
जंगल एक आदिम उपस्थिति,
एक पारितंत्र और जीवन के स्रोत के साथ ही एक प्रवृत्ति का प्रतिनिधि है। इस चयन में जंगल विषयक कविताओं का संग्रह किया गया है।

मैं कोई मतदान नहीं करूँगा। कर नहीं चुकाऊँगा। किसी पंक्ति में खड़े होकर क्यू नहीं बनाऊँगा। कोई उपाधि, सम्मान, लाइसेंस, बीमा, पासपोर्ट, परमिट, पद या पोर्टफ़ोलियों नहीं लूँगा। मैं सामाजिक सुरक्षा नहीं चाहता। बहीखाते ढोने और औरों के लिए कंधे पर बंदूक़ें ढोने और गोली चलाने के बजाय मैं जंगलों और गुफाओं में चला जाऊँगा…।

आप भेड़िए को चाहे कितना भी खिला दें, लेकिन वह हमेशा जंगल पर निर्भर रहता है।

जैसे जंगल में एक हाथी के पीछे बहुत से हाथी चले आते हैं, उसी प्रकार धन से ही धन बँधा चला आता है।

दुर्गम वनों में आनंद होता है और एकाकी समुद्र तट पर हर्षोन्माद। गहरे समुद्र के तट के जनशून्य स्थान में भी समाज होता है और सागर के गर्जन में संगीत। मैं मानव को कम प्रेम नहीं करता, पर प्रकृति को अधिक प्रेम करता हूँ।

जिसके घर माता अथवा प्रियवादिनी पत्नी नहीं है, उसे वन में चला जाना चाहिए क्योंकि उसके लिए जैसा वन, वैसा ही घर।

क्या बाल रवि अंधकार को नष्ट नहीं करता? क्या छोटी दावाग्नि जंगल नहीं जला देती? क्या बाल सिंह हाथी का दलन नहीं करता? क्या बाल सर्प डसता नहीं?

मुझे घोर अँधेरे और घनेरे वन प्रिय हैं, किंतु मुझे वायदे पूरे करने हैं। मुझे सोने से पहले मीलों दूर जाना है।

कोई कितना ही शुद्ध और उद्योगी क्यों न हो, लोग उस पर दोषारोपण कर ही देते हैं। अपने धार्मिक कर्मों में लगे हुए वनवासी मुनि के भी शत्रु, मित्र और उदासीन ये तीन पक्ष पैदा हो जाते हैं।

आख़िर ईश्वर है क्या? एक शाश्वत बालक जो शाश्वत उपवन में शाश्वत क्रीड़ा में लगा हुआ है।

जंगल में रहने वाले पक्षी की उपेक्षा पिंजड़े का पक्षी ही अधिक फड़फड़ाता है।

वास्तव में घर को घर नहीं कहते, गृहिणी को ही घर कहते हैं। गृहिणी के बिना घर अरण्य सदृश है।

राजन्! जो उत्तम व्यवहार करने वाले सत्पुरुषों के साथ असद् व्यवहार करता है, वह कुल्हाड़ी से जंगल की भाँति उस दुर्व्यवहार से अपने आपको ही काटता है।
aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere