पर्वत पर उद्धरण
पर्वत भू-दृश्य भारतभूमि
की प्रमुख स्थलाकृतिक विशेषताओं में से एक है जो न केवल स्थानीय जीवन और संस्कृति पर अपना विशिष्ट प्रभाव रखता है, बल्कि समग्र रूप से भारत के सांस्कृतिक अनुभवों में भी अपना योगदान करता है। इस चयन में पर्वत-पहाड़ विषयक कविताओं का संकलन किया गया है।

देशप्रेम है क्या? प्रेम ही तो है। इस प्रेम का आकलन क्या है? सारा देश अर्थात् मनुष्य, पशु, पक्षी, नदी, नाले, वन, पर्वत सहित सारी भूमि। यह साहचर्यगत प्रेम है।

स्त्री तो एक मूर्तिमान बलिदान है। वह जब सच्ची भावना से किसी काम का बीड़ा उठाती है तो पहाड़ों को भी हिला देती है।

जो आदमी पहाड़ को हटाता है, वह शुरू में छोटे- छोटे पत्थरों को हटाता है।

महान पुरुष तो शरणागत शत्रुओं पर भी अनुग्रह करते हैं। बड़ी नदियाँ अपनी सपत्नी पहाड़ी नदियों को भी सागर तक पहुँचा देती हैं।

पूर्णचंद्र के आलोक को परास्त कर पर्वत के ऊपर तारागण चमकते रहते हैं। उसका रूप देखने में ही तो आनंद है।

निरंतर परिवर्तित होता हुआ यह काल अनेक महापुरुषों को भी एक साथ अनादरपूर्वक गिरा देता है जैसे बड़े-बड़े पर्वतों की शेषनाग।

जिसका जन्म याचकों की कामना पूर्ण करने के लिए नहीं होता, उससे ही यह पृथ्वी भारवती हो जाती है, वृक्षों, पर्वतों तथा समुद्रों के भार से नहीं।

उस (यक्ष) ने आषाढ़ मास के प्रथम दिन उस पर्वत (रामगिरि) की चोटी पर झुके हुए मेव को देखा तो ऐसा प्रतीत हुआ कि मानो वप्रक्रीडा में मग्न कोई हाथी हो।

पसीने से लथपथ बैठे पहाड़ों को याद करना एक अलग सुख है।

जिसमें पर्व हों वहीं पर्वत कहलाता है।

नाकुछ तिनके की ओट में पहाड़ छिप जाता है।

यदि तुम पहाड़ पर नहीं चढ़ोगे, तो तुम दृश्य का आनंद कभी नहीं ले पाओगे।

हर पत्थर की कथा एक पर्वत की ओर जाती है।
aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere